Wednesday, March 24, 2021

रघुवंश (संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' का हिन्दी रूपान्तर) महाकवि कालिदास /3

 

        रघुवंश  (संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' का हिन्दी रूपान्तर)  महाकवि कालिदास /3

                                   विश्वजित यज्ञ

             जिस समय 'विश्वजित' यज्ञ में सर्वस्व दान करने के कारण सम्राट् रघु का खज़ाना बिल्कुल खाली हो चुका था, उस समय वरतन्तु आचार्य का शिष्य कौत्स अपनी शिक्षा समाप्त करके गुरुदक्षिणा की खोज में अयोध्या पहुंचा। सोने के सब बर्तन दिए जा चुके थे, अतः रघु ने मिट्टी के बर्तन में अर्घ्य प्रस्तुत किया। अर्ध्य-पाद्य आदि से उस तपस्वी का सत्कार करके मानियों के प्रमुख सम्राट् रघु ने उसे आसन पर बिठाया और हाथ जोड़कर प्रश्न किया

           हे कुशाग्रबुद्धि मुनिवर, जैसे सारा संसार सूर्य से जीवन प्राप्त करता है, वैसे ही जिस मन्त्रवक्ताओं के अग्रणी ऋषिवर से तुमने सब विद्याएं प्राप्त की है, वे कुशल से तो हैं? देवताओं के अधिपति को हिला देनेवाली महर्षि की त्रिविध तपस्या के मार्ग में कोई रुकावटें तो नहीं आतीं?

          शरीर, वाणी और कर्म द्वारा देवताओं के राजा के आसन को हिला देनेवाला जो त्रिविद तप महर्षि ने संचित किया है, उसमें कहीं विघ्नबाधाएं तो उपस्थित नहीं होतीं?

          शीतल छाया द्वारा थकान उतारनेवाले उन आश्रम के वृक्षों को, जिन्हें आश्रमवासियों ने आलवाल बनाकर तथा सब उपायों से सन्तान की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया है, वायु आदि के उपद्रवों से हानि तो नहीं पहुंचती?

          हरिणियों की जिस सन्तति को मुनि लोग अपने बच्चों से भी अधिक प्रेम करते हैं, जिनका जन्म मुनियों की गोद से ही होता है, जो यज्ञादि के निमित्त से भी अलग नहीं किये जाते, कुशल से तो हैं?

          जिन पवित्र जलों से आप लोग दैनिक स्नानादि करते हैं? जिनकी अंजलियों से पितरों का तर्पण होता है, और जिनकी रेतीली तटभूमि अन्न के षष्ठभाग पर लगे हुए राजकर के चिह्नों से अंकित है, वे जल उपद्रव रहित तो हैं?

         जिनसे आप अपना जीवन-निर्वाह, और समय-समय पर आनेवाले अतिथियों का पूजन करते हैं, उन नीवार श्यामाक आदि अन्नों को भुस की खोज में आने वाले गौ-भैंस आदि पालतू पशु तो नष्ट नहीं करते?

        महर्षि ने विद्या की समाप्ति पर आपको गुरुकुल से प्रसन्नतापूर्वक घर जाने की अनुमति तो दे दी? क्योंकि अब वह समय आ गया है, जब आप अन्यों का उपकार करने की योग्यता के कारण ज्येष्ठ आश्रम-गृहस्थाश्रम में प्रवेश करें ।

        केवल आपके आने से ही मेरा मन सन्तुष्ट नहीं हुआ, मैं उत्सुक हूं कि आपके किसी आदेश का पालन भी करूं। आपने मुझपर अनुग्रह किया है कि अपने गुरु की आज्ञा से अथवा स्वयं जंगल से पधारकर मुझे कृतार्थ होने का अवसर दिया है। 

        वरतन्तु मुनि के शिष्य कौत्स ने अर्घ्य के पात्र को देखकर ही अनुमान लगा लिया था कि रघु सर्वस्व दान कर चुका है। राजा की उदार वाणी सुनकर भी कौत्स की आशा हरी नहीं हुई और वह बोला -

         हे राजन्, आश्रम में सब प्रकार से कुशल-मंगल है शासन की बागडोर आपके हाथों में रहते प्रजा को कष्ट हो ही कैसे सकता है? जब सूर्य दमक रहा हो तब प्राणियों की आंखों को अंधेरा कैसे ढक सकता है?

         हे राजन्, पूज्यों के प्रति भक्ति की भावना रखना तुम्हारे कुल की प्रथा है। अपनी विशालहृदयता के कारण तुमने अपने पूर्व-पुरुषों को भी मात दे दी है। मुझे इतना ही दुःख है कि मैं समय बीत जाने पर अपनी अभ्यर्थना लेकर यहां पहुंचा हूं।

        हे नरेन्द्र, वनवासियों द्वारा अन्न निकाल लेने पर जैसे नीवार का खोखला स्तम्भ (सूखा पौधा) शोभायमान होता है, सत्पात्रों को सर्वस्व दान देकर ही तुम वैसे  शोभायमान हो रहे हो । 

        चक्रवर्ती साम्राज्य प्राप्त करके आज दान के कारण तुम्हारी यह धनहीनता शोभाजनक ही है। देवताओं द्वारा अमृत पिए जाने पर चन्द्रमा की क्षीणता उसकी वृद्धि से कहीं अधिक प्रशंसनीय होती है।

        सो राजन्, मैं किसी अन्य स्थान से गुरुदक्षिणा प्राप्त करने का यत्न करूंगा । मुझे तो इस समय इसके अतिरिक्त कोई कार्य नहीं है। भगवान तुम्हारा कल्याण करें। बरसकर खाली हुए बादल से तो चातक भी पानी नहीं मांगता।

        यह कहकर जब कौत्स विदा होने लगा तो राजा ने उसे रोककर पूछा-हे विद्वान, आप यह तो बताइए कि गुरु की सेवा में आपको क्या वस्तु कितनी राशि में भेंट करनी है?

        विश्वजित् यज्ञ को सफलतापूर्वक सफल करके भी अभिमान से शून्य, वर्णाश्रमों की रक्षा करनेवाले उस क्षत्रपति के प्रश्न को सुनकर वह स्नातक रुक गया और बोला -- 

      विद्याध्ययन समाप्त करके मैंने महर्षि से निवेदन किया था कि मुझे गुरुदक्षिणा भेंट करने की आज्ञा दी जाए। गुरु ने मेरी चिरकाल तक की हुई भक्तिपूर्ण सेवा को ही पर्याप्त समझा । फिर भी मैं गुरुदक्षिणा का आग्रह करता गया। इससे असन्तुष्ट होकर महर्षि ने कहा कि यदि तेरा ऐसा ही आग्रह है तो ग्रहण की हुई चौदह विद्याओं के बदले में चौदह करोड़ मुद्राएं गुरुदक्षिणा के रूप में उपस्थित कर। हे राजन्, पूजा के मृण्मय पात्रों से मैंने जान लिया है कि तुम्हारा केवल 'प्रभु' नाम ही शेष है, और मेरी मांग बहुत बड़ी है, इस कारण मैं तुमसे आग्रह करने का साहस नहीं कर सकता।

        वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण की इस प्रकार की बात सुनकर तेजस्वी और विद्वान् सम्राट ने निवेदन किया -- 

        भगवन्, विद्या रूपी समुद्र को पार करके एक स्नातक गुरु दक्षिणा की खोज में रघु के पास आया और निराश होकर किसी दूसरे दानी के पास चला गया, यह अपकीर्ति मेरे लिए एक नई वस्तु होगी, जो मुझसे सहन नहीं हो सकेगी। अतः आप दो-तीन दिन तक मेरे यज्ञगृह में चतुर्थ अग्नि की भांति आदरपूर्वक निवास करने का अनुग्रह करें। इस बीच में मैं आपकी अभीष्ट धनराशि जुटाने का यत्न करता हूँ।

        रघु के वचन को अटल प्रतिज्ञा के समान मानकर कौत्स प्रसन्नतापूर्वक रुक गया। इधर यह सोचकर कि पृथ्वी का सार खींचकर तो मैं दान कर चुका हूं, राजा ने कैलास के स्वामी कुबेर से अभीष्ट धनराशि लेने का संकल्प किया। जैसे वायु की सहायता प्राप्त होने पर अग्नि की गति अमोघ हो जाती है, उसी प्रकार वसिष्ठ मुनि के वरदान से रघु के रथ की गति न समुद्र में रुकती थी, न आकाश में मन्द होती थी और न पर्वतों पर ढीली पड़ती थी। उस रात रघु शस्त्रों से सुसज्जित रथ में ही सोया, मानो वह प्रातःकाल अपने किसी साधारण सामन्त को जीतने के लिए प्रयास करनेवाला हो। जब वह प्रातःकाल सोकर उठा तो कोषगृह के रखवालों ने सूचना दी कि आज रात कोषगृह में आकाश से सोने की वर्षा हो गई है। वह धनराशि इतनी थी कि मानो बिजली की चोट खाकर सुमेरु पर्वत की चट्टान टूट पड़ी हो। रघु ने वह सम्पूर्ण धन कौत्स की सेवा में मेंट कर दिया। अयोध्या के निवासी यह दृश्य देखकर चकित और कृतकृत्य हो रहे थे कि याचक गुरुदक्षिणा की मात्रा से अधिक लेने से इन्कार करता था, और दाता कुबेर से प्राप्त समस्त धनराशि देने पर तुला हुआ था।

          राजा ने वह धनराशि सैकड़ों ऊंटों और खच्चरों पर लादकर कौत्स के सुपुर्द करते हुए झुककर प्रणाम किया। सन्तुष्ट होकर विद्वान् ब्राह्मण ने राजा को आशीर्वाद दिया-राजन्, तुम जैसे प्रजा का पालन करने वाले शासक के लिए पृथ्वी कामधेनु हो, यह तो स्वाभाविक ही है। परन्तु तुम्हारा प्रभाव अचिन्तनीय है, जिसने आकाश को भी  दुह लिया। संसार की सब विभूतियां तुम्हें प्राप्त हैं, अन्य जो भी शुभकामना की जाएगी वह पुनरुक्तिमात्र होगी। इस कारण मेरा इतना ही आशीर्वाद है कि जैसे तुम्हारे योग्य पिता ने तुम्हें प्राप्त किया था वैसे ही तुम भी अपने अनुरूप पुत्र प्राप्त करो।

         इस प्रकार आशीर्वाद देकर गुरुदक्षिणा के साथ ब्राह्मण गुरु के पास चला गया। जैसे संसार सूर्य से प्रकाश प्राप्त करता है, वैसे राजा ने भी भगवानू की दया से पुत्ररत्न प्राप्त किया।

         महारानी ने ब्राह्ममुहूर्त में स्कन्द के समान तेजस्वी कुमार को प्राप्त किया। इस कारण सम्राट ने उसका नाम ब्रह्मा के नाम पर 'अज' रखा।

         अज में वही तेजस्वी रूप, वही बल और वही स्वाभाविक उदार भाव था । कुमार अपने पिता से उसी प्रकार अभिन्न था, जैसे दीये से जला हुआ दीया । जब गुरुओं से विधिपूर्वक प्राप्त की हुई शिक्षा और युवावस्था के प्रभाव से अज पूर्णरूप से सुन्दर और गम्भीर हो उठा, तब यद्यपि राज्यश्री उसके गले में हार पहनाने को उत्सुक थी, तो भी लज्जाशील कन्या की तरह पिता की अनुमति की प्रतीक्षा कर रही थी। इस समय विदर्भ के राजा भोज के विद्वान् दूत ने रघु के पास आकर निवेदन किया कि राजकुमार अज को पुत्री इन्दुमति के स्वयंवर में भाग लेने को भेजिए। सम्बन्ध उत्तम है और कुमार की अवस्था विवाह के योग्य हो गई है, यह विचारकर राजा ने अज को सेनाओं के साथ धन-धान्य से भरी हुई विदर्भ देश की राजधानी की ओर भेज दिया। मार्ग में युवराज ने जहां पड़ाव किए वहां राजाओं के योग्य बहुमूल्य तम्बुओं के महल बनाए गए थे, जिनमें नगरों से लाकर उत्तमोत्तम सामग्री इकट्ठी की गई थी, और जिन्हें वाटिका और विहारस्थानों से सुखकारी बनाया गया था। उसका एक पड़ाव नर्मदा नदी के तीर पर हुआ, जहां मार्ग की धूल से सनी हुई सेनाओं को नदी जल से आर्द्र, और नक्तमाल के स्पर्श से ठंडे पवन से शान्ति प्राप्त हुई।

         जब नर्मदा के तट पर अज का डेरा पड़ा हुआ था, तब एक जंगली हाथी-जिसके गण्डस्थल जल से धुल जाने के कारण निर्मल हो गए थे, परन्तु पानी के ऊपर मंडराते हुए भौंरों को देखकर यह सूचित होता था कि पानी में जाने से पूर्व उसके मस्तक से मद बह रहा था-नदी के जल से निकलता दिखाई दिया। उसके मर्द की तीव्र बास से परास्त हुए सेना के हाथी, हाथीवानों के हाथ से निकलने लगे। उसके भय से सेना के वाहन रस्सी तुड़ाकर भागने लगे; जिससे रथ उलटकर टूटने लगे और सिपाही लोग स्त्रियों की रक्षा में व्यस्त हो गए। इस लोकप्रधा का आदर करते हुए कि जंगली हाथी राजा के लिए अवध्य है, अज ने केवल उसे रोकने के लिए धनुष की प्रत्यंचा हल्का सा खींचकर उसके कुम्भस्थल पर तीर मारा आश्चर्य से चकित सेनाओं ने देखा कि तीर से विद्ध होकर उस हाथी का रूप बदल गया, और वह चमचमाते तेज के मण्डल से घिरे हुए आकाशवासी गन्धर्व के रूप में दिखलाई देने लगा उसने पहले राजकुमार पर कल्पद्रुप के फूलों की वर्षा की, और फिर निवेदन किया

            हे राजकुमार, मैं प्रियदर्शन नाम के गन्धर्वराज का पुत्र प्रियंवद हूं। मेरे दुरभिमान से रुष्ट होकर मतंग मुनि ने मुझे शाप दे दिया, जिससे मुझे हाथी का रूप धारण करना पड़ा। शाप मिलने पर मैंने अनुनय-विनय किया तो वे शान्त हो गए। पानी चाहे आग और धूप के संयोग से गर्म हो जाए, परन्तु वह स्वभाव 1. से तो शीतल ही है। शान्त होकर तपस्वी ने शाप को कम करते हुए कहा कि इक्ष्वाकुवंश का राजकुमार अज जब बाण से तेरे मस्तक को छेद देगा, तब तुझे अपना शरीर वापस मिल जाएगा। सो तुमने मुझे शाप से छुड़ाकर मुझपर बड़ा उपकार किया। इसके बदले में यदि मैं प्रत्युपकार न करूं, तो मेरा निज रूप में आना व्यर्थ ही होगा। हे मित्र, मेरे पास सम्मोहन नाम का गन्धर्व अस्त्र है, जिसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि शत्रु की हिंसा नहीं करनी पड़ती और जीत हाथ में आ जाती है। यह अस्त्र मैं तुम्हें देता हूं। इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है। तुमने तीर का प्रहार करते हुए मुझपर मुहूर्त-भर जो दया का भाव प्रदर्शित किया, उसने मेरे हृदय में अपनापन पैदा कर दिया है। कृपया इस भेंट को लेने से इन्कार न करना।

          राजकुमार ने प्रियंवद की बात स्वीकार कर ली और पूर्वाभिमुख हो नर्मदा के जल का आचमन करके सम्मोहनास्त्र ग्रहण किया। इस प्रकार दैव ने उन दोनों को मार्ग में मिलाकर मित्र बना दिया। अस्त्र-ग्रहण के पश्चात् वह चैत्ररथ नाम के गन्धर्वों के निवासस्थान की ओर चला गया, और दूसरे ने उत्तम शासन के कारण सुखी और समृद्ध विदर्भ देश की दिशा की ओर प्रस्थान किया।

         जब अज विदर्भ की राजधानी के पास पहुंचा, तो जैसे लहरों की भुजाओं को बढ़ाकर समुद्र चन्द्रमा का स्वागत करता है, वैसे ही विदर्भराज ने प्रसन्नहृदय से उसका स्वागत किया। विदर्भराज भोज ने नगरप्रवेश के समय ऐसी नम्रता से व्यवहार किया, जिससे सब अभ्यागत लोगों ने अज को गृहस्वामी और भोज को अतिथि समझा।

         वहां पहुंचकर अधिकारी पुरुष राजकुमार को जिस नवनिर्मित और सुन्दर राजमहल में ठहराने के लिए ले गए, उसके पूर्व द्वार पर जल से भरे हुए घड़े स्थापित किए गए थे। उस भवन में अज ऐसा शोभायमान हुआ मानो साक्षात् कामदेव युवावस्था में निवास कर रहा हो ।

        रात्रि के समय राजकुमार को बहुत मीठी नींद आई । उषाकाल में वैतालिक लोगों ने मधुर और प्रगल्भ स्तुतियों द्वारा उसका उद्बोधन किया। उन्होंने कहा -रात समाप्त हो गई। हे बुद्धिमानों के शिरोमणि! अब शय्या को छोड़िए। इस पृथ्वी का बोझ विधाता ने दो कन्धों पर रखा है। एक कंधा तुम्हारे सदा जागरूक पिता का है, और दूसरा तुम्हारा । देखो, अभी भगवान भास्कर आकाश में अवतीर्ण भी नहीं हुए कि उनके सारथि अरुण ने अन्धकार को छिन्न-भिन्न कर दिया। ठीक भी है, हे वीर, जब तुम मैदान में उतर आओगे, तो तुम्हारे गुरु को हथियार उठाने की क्या आवश्यकता है! राजकुमार, कल सायंकाल तैयार किए गए फूलों के हार बिखर रहे हैं, दीपक की ज्योति मन्द पड़ गई है, और पिंजरे में बन्द तुम्हारा सुग्गा हमारे प्रबोध वाक्यों को मीठे गले से दोहरा रहा है । अब उठो।

        इस प्रकार स्तुतिवाक्यों से अज की नींद टूट गई और वह बिस्तर छोड़कर उठ बैठा। उठकर शास्त्रोक्त रीति से उसने नित्यकर्मों का अनुष्ठान किया। कुशल परिचारकों ने उसे सभा के योग्य वेशभूषा से परिष्कृत किया, जिसके पश्चात् वह नियत समय पर स्वयंवर के मण्डप की ओर प्रस्थित हुआ।

                             इन्दुमती का स्वयंवर

          स्वयंवर के मण्डप में पहुंचकर राजकुमार ने सुन्दर वेशवाले क्षत्रियां को विमान पर आरूढ़ देवताओं के समान शोभायमान देखा । राजाओं ने जब कामदेव के सदृश सुन्दर अज को देखा तो उनके मन में इन्दुमती की ओर से निराशा उत्पन्न हो गई। जैसे शेर का बच्चा शिलाओं पर चरण रखता हुआ पर्वत की चोटी पर चढ़ जाता है, वैसे ही सम्राट् रघु का राजकुमार भी शानदार सीढ़ियों से होकर राजा भोज द्वारा निर्दिष्ट सिंहासन पर विराजमान हो गया। सिंहासन रत्नों से जगमग हो रहा था और उसपर बहुमूल्य रंग-बिरंगे कालीन बिछे हुए थे। उसपर आसीन कुमार ऐसे शोभायमान हो रहा था, जैसे मोर की पीठ पर बैठा हुआ सेनानी गुह। जैसे अनेक मेघों में भिन्न-भिन्न रूपों से एक ही बिजली दमकती दिखाती देती है, वैसे ही उन उपस्थित नरेशों में मानो एक ही राजश्री अनेक रूपों में छिटक रही थी। बहुमूल्य आसनों पर विराजमान उन राजाओं की श्रेणी में सम्राट् रघु का कुमार कल्पवृक्षों में पारिजात के समान देदीप्यमान हो रहा था । जब उपवन में कोई मदमस्त हाथी आ जाए, तो गन्ध से खिंचे हुए भौरे फूलों को छोड़कर उसी की ओर खिंच जाते हैं। नगरवासियों की आंखें भी अज के पहुंचने पर क्षत्रियों को छोड़कर उसी की ओर आकृष्ट हो गई।

             इस प्रकार सूर्य और चन्द्रवंशी राजाओं के एकत्र हो जाने पर वंशपरम्परा से अभिज्ञ बन्दीजनों ने उनका अभिनन्दन किया। धूपबत्तियों के जलने से उठा हुआ धुआं पताकाओं की चोटियों को छूने लगा, और नगर के समीप उपवनों में रहनेवाले मोरों को नचा देनेवाला प्राभातिक शंख आकाश को गुंजाने लगा। मंगलाचरण समाप्त होने पर, मनुष्यों द्वारा उठाई जाने वाली चौकोर पालकी में परिजनों द्वारा घिरी हुई, पति के वरण की इच्छा रखनेवाली स्वयंवर-वेषधारिणी राजकुमारी इन्दुमति ने मंडप के राजमार्ग में प्रवेश किया। सैकड़ों आंखों की एक लक्ष्य, विधाता की उस अद्भुत रचना के सम्मुख आने पर सब नरेश अन्तःकरणों से उसके समीप जा पहुंचे, सिंहासनों पर तो केवल उनके शरीर ही रह गए । 

          तब राजवंशों के इतिहास से परिचित और पुरुष के समान प्रगल्भ प्रतिहारी सुनन्दा इन्दुमति को मगधदेश के राजा के समीप ले जाकर बोली-यह मगधदेश का राजा परन्तप है। जैसी नाम वेसे गुणोवाला है। शत्रुओं का काल है, शरणार्थियों को शरण देनेवाला है और स्वभाव से गम्भीर है। प्रजा का रंजन करने के कारण इसने यश प्राप्त किया है। शासक तो अनेक हैं, परन्तु भूमि को राजवन्ती कहलाने का सौभाग्य इसी से प्राप्त है। आकाश में अनगनित ग्रह-नक्षत्र हैं, परन्तु रात्रि चन्द्र के कारण ही उजली समझी जाती है। इस राजा के द्वारा यज्ञों में निरन्तर निमन्त्रित होने के कारण इन्द्र को बहुत समय तक स्वर्गलोक से अनुपस्थित रहना पड़ता था। फलतः पति-वियोग में महारानी शची के सुन्दर केश कपोलों तक लटक गए और मन्दार पुष्पों से शून्य हो गए हैं। यदि तुम चाहती हो कि यह श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा पाणिग्रहण करे, तो पुष्पपुर में प्रवेश के लिए उद्यत हो जाओ, जहां प्रवेश के समय नगर की सुन्दरियां महलों के झरोखों में बैठकर तेरे दर्शन से अपने नेत्रों को आनन्दित करेंगी। 

          सुनन्दा के वचन सुनकर इन्दुमती ने मुंह से तो कोई उत्तर नहीं दिया, केवल परंतप की ओर देखकर हल्का-सा प्रणाम कर दिया, जिसका अभिप्राय था कि नहीं।

          जैसे वायु के वेग से उठी हुई जल की लहर मानस सरोवर की राजहंसी को एक कमल से दूसरे कमल के पास पहुंचा देती है, उसी प्रकार वह दौवारिक सुनन्दा राजकुमारी को परंतप के पास से हटाकर दूसरे राजा के समीप ले गई और बोली --

         यह अंगदेश का राजा है। अप्सराएं इसके यौवन पर लट्टू हैं। प्रसिद्ध महावतों द्वारा सधाए हुए हाथियों की विभूति के कारण यह ऐरावत के स्वामी इन्द्र के सदृश ऐश्वर्य का उपभोग कर रहा है। इसके पराक्रम ने पराजित शत्रुओं की स्त्रियों के गले में मोतियों के समान स्थूल आंसुओं की मालाएं डालकर बिना सूत्र के ही हार पहना दिए हैं। श्री और सरस्वती स्वभाव से एक-दूसरे के संग नहीं रहतीं, इसने अपने गुणों से दोनों को वश में कर लिया है। शरीर के सौंदर्य और सत्य तथा प्रिय वाणी के कारण हे इन्दुमती, तुम ही इसके योग्य हो।

        सुनन्दा के वाक्य की समाप्ति पर इन्दुमति ने अंगराज पर से आंख हटाकर कहा-आगे चल! इससे यह न समझना चाहिए कि अंगराज सुन्दर नहीं था. और न ही यह बात थी कि इन्दुमती में पहचानने की शक्ति न हो। तो भी इन्दुमती उसे छोड़ गई। संसार में सबकी रुचि भिन्न-भिन्न है । 

      उससे आगे सुनन्दा इन्दुमती को नवोदित चन्द्र के समान सुन्दर और आकर्षक अवन्तिनाथ के सामने ले गई, और कहने लगी --

        यह विशाल वक्षस्थल और संकुचित कटिभाग से सुशोभित महाबाहु अवन्ति का शासक है। इसका तेजस्वी शरीर, विश्वकर्मा द्वारा चक्र पर चढ़ाए हुए सूर्त जैसा प्रतीत होता है। इसकी विजय यात्रा में सेना के घोड़ों की टाप से उठी धूलि शत्रुओं के मुकुटों की मणियों पर बैठकर, इसके पहुंचने से पूर्व ही उन्हें आभाहीन कर देती है। यह महाकाल-मन्दिर के निवासी भगवान् चन्द्रमौलि महादेव के समीप ही रहता है, इस कारण अंधेरी रातों में भी यह चांदनी से चमकती हुई रातों का अनुभव करता है। यदि इस नौजवान राजा के साथ, शिप्रा नदी के जलों का स्पर्श करनेवाले वायु से प्रकम्पित उद्यानों में विहार करने का विचार हो तो हे सुन्दरी राजकुमारी, मुझे बता दो।

        अवन्तिनाथ अपने तेज से मित्ररूपी पद्मों को विकसित करनेवाला, और शत्रुरूपी कीचड़ को सुखा देनेवाला होने के कारण सूर्य के समान तेजस्वी था। परन्तु जैसे सुकोमल कुमुदिनी उसे पसन्द नहीं करती, वैसे ही इन्दुमती का हृदय भी उसकी ओर नहीं झुका। तब सुनन्दा इन्दुमती को आगे लाकर अनूपराज का परिचय देने लगी -- 

         ब्रह्मज्ञानी राजा कार्तवीर्य का नाम तुमने सुना होगा। जब वह संग्रामभूमि में उतरा था, तब शत्रु उसे सहस्त्रबाहु-सा अनुभव करते थे। उसने अठारहों द्वीपों में अपने यज्ञों के यूथ गाड़ दिए थे। प्रजारंजन के कारण 'राजा' यह विशेषण उसमें असाधारण रूप से अन्वर्थक जंचता था। प्रजा पर उसका ऐसा आतंक था कि मन में अपराध का विचार आते ही धनुर्धारी राजा की मूर्ति मन के सामने आ जाती और मानसिक अपराध भी रुक जाता था। जिस रावण ने इन्द्र को भी जीत लिया था, कार्तवीर्य के कारागृह में उसी रावण की भुजाएं धनुष की प्रत्यंचा से बंधी हुई थीं, और मुखों से निरन्तर जोर-जोर से सांस निकल रहे थे और उसे तब तक बन्दी रहना पड़ा था जब तक राजा का अनुग्रह न हुआ। उस कार्तवीर्य के वंश में वेदवेत्ताओं की सेवा करनेवाले इस 'प्रतीप' नामक राजा ने जन्म लिया है, जिसने अपनी दृढ़ता के कारण श्री का 'चंचलता' अपयश धो दिया है। इस तपस्वी ने तपस्या द्वारा आग्निदवता की प्रसन्न करके सहायता का वर प्राप्त किया है। उसके प्रभाव में क्षात्रियों के सहारकर्ता परशुराम के परश की धार को यह कमलपत्र की धार से भी अधिक कोमल समझता है। यदि महिष्मती नगरी की चहारदीवारी के चारों ओर कमरबन्द की तरह लिपटी हुई और केशवेणी के समान लहरें खाते हुए जलप्रवाह से सुन्दर रेखा नदी को देखने की इच्छा है, तो तुम इस राजा की गृहलक्ष्मी बन जाओ। 

          वह देखने में सुन्दर राजा भी इन्दुमती को पसन्द नहीं आया। बादलों के हट जाने से निर्विघ्न चमकने वाला सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा भी कमलिनी को खिलाने में समर्थ नहीं होता। 

         तब वह अन्तःपुर की रक्षिका सुनन्दा, राजकुमारी को आचार की शुद्धता के कारण माता और पिता दोनों वंशों की ख्याति को चमकाने वाले, देश-देशान्तर में प्रसिद्ध शूरसेन देश के राजा सुषेण के समीप ले जाकर बोली-मुनियों के आश्रम में जैसे सिंह और गौ, स्वभाव से विरोधी जीव आपस का विरोध छोड़ देते हैं, वैसे ही नीप वंश के अंकुर इस यज्ञपरायण राजा में इकट्ठे होकर अनेक परस्पर-विरोधी गुणों ने विरोध-भाव छोड़ दिया है। इस राजा की जो कान्ति अपने घर में चांद की चांदनी की तरह शीतल होकर फैल रही है, वही परास्त होने के कारण सुनसान हुए शत्रुओं के घरों में असह्य तेज बनकर चमकती है। यमुना का जल अन्य सब स्थानों पर काला है, परन्तु इस राजा की नगरी मथुरा के पास जब राजपरिवार की स्त्रियां उसमें स्नान करती हैं, तो उनके वक्ष पर लगे चन्दन के कारण वह धौला हो जाता है, जिससे प्रतीत होने लगता है कि मानो वहीं यमुना और गंगा का संगम हो गया है। गरुड़ से डरे हुए यमुना-तटवासी कालिया सर्प के द्वारा दी हुई मणि को छाती पर धारण करके यह राजा सुषेण शोभा में कौस्तुभधारी कृष्ण को भी मात दे रहा है । हे राजकुमारी, यदि तुम कुबेर की वाटिका से भी अधिक सुन्दर वृन्दावन में कोमल पल्लवों से ढकी हुई पुष्पशय्या पर विश्राम करने का विचार रखती हो तो अपनी यौवन-श्री इन युवा को समर्पित करो। तुम वहां वर्षाऋतु में, गोवर्धन पर्वत की सुन्दर कन्दराओं में, जलकणों से भीगे हुए पहाड़ी फलों से सुगन्धित शिलातलों पर, मोरों का मनोहारी नाच देखोगी।

           जैसे समुद्र की ओर बहने वाली नदी मार्ग में आए हुए ऊंचे पर्वतों को लांघ जाती है, वैसे ही इन्दुमती उस वीर राजा को छोड़कर आगे चली गई । आगे कलिंग के राजा हेमाङ्गद का आसन था। उसकी भुजाओं पर केयूर शोभायमान हो रहा था। सुनन्दा उसे लक्ष्य करके इन्दुमती से बोली - 

        महेन्द्र पर्वत के समान विशाल और दृढ़ यह राजा महेन्द्र पर्वत और समुद्र का स्वामी है। जब इसकी सेनाएं विजय-यात्रा के लिए चलती हैं, तब मद की धारा बहाते हुए हाथी उनके आगे-आगे चलते हैं, मानो नदियों को साथ लिए महेन्द्र पर्वत स्वयं मार्ग-प्रदर्शन कर रहा हो। इस धनुर्धारी की भुजाओं पर निरन्तर 1. धनुश्चालन के कारण प्रत्यंचा के निशान पड़ गए हैं, मानो इसके द्वारा मारे गए शत्रुओं की स्त्रियों के कज्जल-सहित आंसुओं की धाराओं के चिह्न हों। इसके प्रासाद के नीचे फैला हुआ समुद्र, प्रातःकाल प्रासाद के रोशनदान में से दिखाई देती हुई लहरों की गम्भीर ध्वनि से इसे जगा देता है, जिससे अन्य किसी प्राभातिक वाद्य की आवश्यकता नहीं रहती। इसके साथ तुम ताड़ के पत्तों के मर्मर शब्द से युक्त समुद्रतटों पर विहार करो, जहां अन्य द्वीपों से उड़ाकर लाए हुए लवंग पुष्परजों से सुगन्धित वायु तुम्हारे पसीने की बूंदों को सुखा देगी।

         जैसे दैव के प्रतिकूल होने पर कुशल से कुशल नीतिज्ञ राजलक्ष्मी को अपने अनुकूल नहीं बना सकता, वैसे ही सुनन्दा के बहुत लुभानेवाले वाक्य भी इन्दुमती को महेन्द्र की ओर आकृष्ट न कर सके। सुनन्दा इन्दुमती को आगे ले गई, जहां सुन्दरता में देवताओं के समान उरग नामक नगर का राजा विराजमान था। वह बोली-राजकुमारी, इधर देखो, यह पाण्डुदेश का राजा पाण्ड्य है। इसकी चन्दन से सुशोभित छाती पर लम्बे लटकते हुए हार ऐसे दमक रहे हैं मानो प्रातःकाल की सूर्य-किरणों से लाल-लाल दीखनेवाली हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों से गिरता हुआ जलनिर्झर हो । विन्ध्यपर्वत को सूर्य के मार्ग में अड़ने से रोकने वाले तथा समुद्र को सुखाकर भर देने वाले ऋषि अगस्त्य, अश्वमेध की समाप्ति पर स्नान से निवृत्त हुए यशस्वी क्षत्रिय से प्रेमपूर्वक कुशल समाचार पूछने आते हैं। अभिमान से भरा हुआ लंकापति रावण जब इन्द्रलोक को जीतने के लिए उत्तर की ओर जाने लगा, तब इस आशंका से कि कहीं यह पीछे जनस्थान-प्रदेश पर अधिकार न जमा ले, वह पाण्ड्य से सन्धि करने के लिए बाधित हुआ था। हे राजकुमारी! इस महाकुलीन राजा का पाणिग्रहण करके तुम रत्नों की लड़ी से सुभूषित समुद्ररूपी कमरबन्दवाली दक्षिण दिशा की सपत्नी बन जाओगी। यदि तुम पाण्ड्य का वरण करो तो तुम्हें मलय पर्वत के ताम्बूल की बेलों द्वारा आलिंगित, सुपारी, इलायची आदि लताओं द्वारा परिवेष्टित, चन्दन और तमाल के पत्तों से बने हुए आस्तरणों के अलंकृत प्रदेशों में विहार करने का अवसर मिलेगा। नीलकमल के समान नीली छविवाला यह राजकुमार है और रोचना के सदृश गोरे रंग की तुम हो। जैसे बिजली और काले बादल की शोभा एक-दूसरे से बढ़ती है, उसी प्रकार तुम्हारी भी बढ़ेगी।

            सुनन्दा ने पाण्ड्य के सम्बन्ध में जितने उपदेश दिए, इन्दुमती के हृदय पर उनमें से एक का भी प्रभाव न पड़ा। सूर्य के अदर्शन से बन्द हुए नलिनी के फूल को खोलने में चन्द्र की किरणें कभी समर्थ नहीं होतीं। वह पतिंवरा राजकुमारी जलती हुई दीपशिखा के समान जिस-जिस राजा के पास से गुजरती जाती थी, राजमार्ग के दोनों और बने हुए विशाल भवनों की तरह उसी पर अंधेरा छाता जा रहा था।

           जब इन्दुमती अज के समीप पहुंची तब अज का दिल यह सोचकर धड़कने लगा कि यह मेरा वरण करेगी या नहीं, किन्तु उस समय उसकी दक्षिण भुजा के केयूरबन्ध के स्थान में जो फड़कन पैदा हुई, उसने उसके सन्देह को दूर कर दिया। उस सर्वाग-सुन्दर क्षत्रिय राजकुमार के सामने जाकर राजकुमारी रूक गई फूले हुए सहकार के पौधे को पाकर भौरों की पंक्ति अन्य पौधों के समीप नहीं जाती।

          जब सुनन्दा ने देखा कि राजकुमारी का मन अज की ओर आकृष्ट हो गया है, तब वह राजवंशों के यृत्तान्त में प्रवीण प्रतिहारी विस्तार सहित यों कहने लगी --

       इक्ष्वाकु के वंश में ककुत्स्थ नाम का एक वीर उत्पन्न हुआ, जो राजाओं में ककुद के समान उन्नत और श्रेष्ठ था और वक्रवर्ती के लक्षणों से युक्त था। उत्तरकोसल देश के शासक उसी वीर के नाम से ककुत्स्थ कहलाते हैं। उस पराक्रमी ककुत्स्थ के वंश में यशस्वी और कुल को उज्ज्वल करनेवाले उस राजा दिलीप ने जन्म लिया, जिसने निन्यानवे राजसूय यज्ञ करके सौवा यज्ञ केवल इसलिए अधूरा छोड़ दिया कि देवताओं के राजा इन्द्र के मन को पीड़ा न पहुंचे उसके राज्यकाल में जब नाचनेवाली स्त्रियां थककर क्रीड़ा-स्थान के मध्यमार्ग में सो जाती थीं, तब वायु का साहस नहीं होता था कि उनके कपड़ों को हिलाए, हाथ तो झल ही कौन सकता था! उस राजा दिलीप का पुत्र रघु अब शासन कर रहा है। सम्राट् रघु ने दिग्विजय करके विश्वजित् नामक यज्ञ को पूर्ण किया और यज्ञ की समाप्ति पर चारों दिशाओं से एकत्र हुई विभूति का दान कर दिया, जिससे उसके पास केवल मिट्टी के बर्तन शेष रह गए। उसका यश आज पृथ्वी की सीमाओं को पार कर गया है। यह पहाड़ों से ऊँचा चला गया है, समुद्रों से पार हो गया और पाताल को छेदकर उसके भी नीचे फेल गया है, जैसे स्वर्ग के स्वामी इन्द्र का जयन्त नाम का पुत्र है, उसी प्रकार यह कुमार राजा रघु का तेजस्वी उत्तराधिकारी है, जो पिता के लिए शासनभार उठाने में समानरूप से सहायक हो रहा है। कुल, कान्ति, चढ़ती आयु और अनेक विद्या, शील आदि गुणों में यह तुम्हारे समान है। हे राजकुमारी, तुम इसके गले में वरमाला पहना दो। हीरा स्वर्ण से मिल जाए।

              सुनन्दी का वचन समाप्त होने पर नैसर्गिक लज्जा को दबाकर इन्दुमती ने प्रसन्न और निर्मल दृष्टि से कुमार अज को इस प्रकार स्वीकार कर लिया, मानो वरमाला पहना दी हो। राजकुमारी वहां मुग्ध-सी होकर खड़ी रह गई। कुलीनता के कारण मुंह से कुछ न कह सकी। उसके मन की अभिलाषा का अनुमान केवल शरीरव्यापी रोमांच से हो रहा था। यह देखकर प्रतिहारी ने सखीभाव से परिहास करते हुए कहा-आयें, चलो आगे चलें। इसपर रोषभरी दृष्टि से उसने सुनन्दा की ओर देखा और निर्देश किया कि राजकुमार के कण्ठ में वरमाला पहना दे। प्रतिहारी सुनन्दा ने शरीरधारी प्रेम के सदृश मांगलिक सिन्दूर से रक्तवर्ण हुई माला को अज के गले में पहना दिया। विशाल वक्षःस्थल तक लटकनेवाले उस मंगलमय पुष्पों के हार को पहनकर राजकुमार ऐसा अनुभव करने लगा मानो विदर्भराज की कन्या की कोमल भुजाएं उसके गले का स्पर्श कर रही हों।

         उस दृश्य से अत्यन्त प्रसन्न होकर विदर्भ के कहने लगे कि मेघों से मुक्त उपचल चन्द्रमा को चांदनी प्राप्त हो गई और शीतल समुद्र में भगवती गंगा अवतीर्ण हो गई। ये वाक्य स्वयंवर में उपस्थित अन्य राजाओं को बहुत कटु प्रतीत हुए। उस समय वहां एक ओर स्वयंवर के सुन्दर परिणाम से कन्या-पक्ष के लोग बहुत प्रमुदित हो रहे थे, तो दूसरी ओर निराश राजाओं के मन में जलन पैदा हो रही थी। स्वयंवर-माण्डप की दशा उस तालाब-सी हो रही थी, जिसमें उषाकाल में एक ओर कमलिनी खिल रही हो, दूसरी ओर कुमुदिनी मुरझा रही हो।


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रघुवंश (संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' का हिन्दी रूपान्तर) महाकवि कालिदास /2


                रघुवंश  (संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' का हिन्दी रूपान्तर)  महाकवि कालिदास /2

                   रघु की अग्नि-परीक्षा


             कुछ दिन पश्चात् रानी सुदक्षिणा गर्भवती हुई। जैसे प्रभातकाल के समीप आने पर चन्द्रमा के प्रकाश से प्रकाशित रात्रि के आकाश पर पीलापन छा जाता । उसी प्रकार सुदक्षिणा के चेहरे पर भी लोधपुष्प का-सा पीलापन आने लगा। मी ऋतु के सूखे हुए तालाब की मिट्टी में वर्षा की बूंदों से जो सुगन्ध उत्पन्न होने है, उसे सूंघकर जैसे जंगली हाथी प्रसन्न होता है, वैसे ही रानी के मुंह से मिली की बास लेकर राजा प्रसन्न होता न थकता था। मानो रानी यह सोच रही हो कि मेरी कोख से जो राजकुमार जन्म लेगा, उसे पृथ्वी का ही तो उपभोग करना है।

           यह मुझसे लज्जावश स्वयं कुछ न कहेगी, तुम बतलाओ कि यह क्या चाहती है-इस प्रकार सहेलियों से पूछ-पूछकर राजा सुदक्षिणा की इच्छाओं को तत्काल पूरा कर देता था। तीनों लोकों में ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जो पराक्रमी धनुर्धारी के लिए दुर्लभ हो। क्रम से सुदक्षिणा की प्रारम्भिक क्षीणता दूर होने और पूर्णता की सुन्दरता आने लगी। मानो पुराने पत्तों के झड़ जाने पर नई सुंदर कोपलें लता पर आ गई हों। राजा ने पुरोहितों से यथासमय पुंसवनादि संस्कार विधिपूर्वक कराए। दसवें मास में चिकित्सा के जानने वाले कुशल वैद्यों द्वारा गर्भपोषण की प्रक्रिया हो जाने पर, बादलों से भरे हुए अन्तरिक्ष की भांति परिपूर्ण पत्नी को देख कर राजा ने अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव किया।

         अच्छे मुहूर्त में, जब पांचों ग्रह अनुकूल थे, शची-समान राजपत्नी ने पुत्ररत्न को उसी प्रकार जन्म दिया, जैसे प्रभाव, उत्साह और मंत्रणा से सम्पन्न शक्ति अनश्वर सम्पत्ति को जन्म देती है। उस समय दिशाएं खिल उठीं, सुखकारी पवन बहने लगा, यज्ञाग्नि चारों ओर लपटों को फैलाकर यज्ञ की सामग्री गहण करने लगी-इस प्रकार उस क्षण में सभी कुछ कल्याण की सूचना देने लगा। ऐसे महापुरुषों का जन्म संसार के लिए ही होता है। जिस समय सूतिकागृह में उस नवजात को बिस्तर पर लिटाया गया तो उसके उग्र तेज के सामने रात के समय जलने वाले दीपक मन्द पड़ गए, मानो दीवार पर दीपकों के केवल चित्र वने हुए हों महलों से आकर जिन परिचारकों ने पुत्र जन्म का शुभ समाचार सुनाया, महाराज ने उन्हें चन्द्र के समान उज्ज्वल राजच्छत्र और शाही चामरों को छोड़कर अन्य जो कुछ भी उन्होंने मांगा, देने में संकोच नहीं किया। जिस समय राजा दिलीप ने पुत्र के चन्द्र-समान सुंदर मुख को एकटक दृष्टि से देखा, उस समय उसके हृदय-रूपी सागर में प्रसन्नता का तूफान-सा उमड़कर किनारे की सीमा को पार रहा था। ऋषि वसिष्ठ ने वन से आकर कुमार के जातकर्म-सम्बन्धी सब 1. संस्कार विधिपूर्वक कराए। जिस प्रकार खान में से निकले हुए रत्न को पत्थर पर घिसने से आभा बढ़ती है, संस्कारों से कुमार की आभा भी उसी प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि पाने लगी। उस अवसर पर, केवल सम्राट दिलीप के घर पर ही नहीं, अपित देवताओं के विहार-स्थान अन्तरिक्ष में भी मंगलमय मधुर बाजे बजने लगे और अप्सराएं प्रसन्नता से नृत्य करने लगीं। प्रायः राजा लोग ऐसे उत्सवों पर कैदियों को छोड़ देते हैं, पर उसके राज्य में तो कोई कैदी ही नहीं था। हां, वह स्वयं ही अपने पूर्व-पुरुषों के विद्यमान पितृऋण से मुक्त हो गया।

             'रघु' शब्द का अर्थ है-जाने वाला। यह बालक विद्यारूपी समुद्र को पार करे और शत्रुओं के अन्त तक जा पहुंचे-इसी संकल्प से राजा ने उसका नाम 'रघु' रखा। जिस प्रकार शिव और पार्वती कुमार के जन्म से तथा इन्द्र और शची जयन्त के जन्म से प्रसन्न हुए थे, दिलीप और सुदक्षिणा भी रघु के जन्म से उसी प्रकार प्रसन्न हुए। उन दोनों का चकवा-चकवी का-सा हार्दिक प्रेम, जो पहले ही बहुत गहरा था, पुत्र में एकत्र होकर और भी अधिक गहरा हो गया। रघु चन्द्रमा की कलाओं की भांति प्रतिदिन वृद्धि पाने लगा। पहले वह धाय की अंगुली पकड़ कर चलने लगा और उसके अनुकरण में शब्द बोलने लगा, फिर अपने समान आयु वाले अमात्य-पुत्रों के साथ मिलकर लिपि सीखने लगा जैसे नदीरूपी मुख से अनेक प्रकार के पदार्थ समुद्र में पहुंच जाते हैं, उसी प्रकार लिपि द्वारा रघु ने भी विद्या रूपी महासमुद्र में प्रवेश किया। कुछ समय पीछे उसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ, जिसके पश्चात्गु रुजनों ने उसे विधिपूर्वक शिक्षा देना आरम्भ कर दिया। 

             रघु ने बड़े परिश्रम से अध्ययन किया। जैसे सूर्य अपनी किरणों के बल से चारों दिशाओं को पार कर लेता है, वैसे रघु ने भी बुद्धिबल से समुद्र के समान विस्तीर्ण चारों विद्याओं को पार कर लिया। अस्त्र-शिक्षा तो उसने अपने पिता से ही प्राप्त की। ब्रह्मचारियों के योग्य मृगछाला पहनकर वह पिता से ही शस्त्रास्त्र-विद्या सीखता था, क्योंकि उसका पिता केवल पृथ्वी का प्रमुख शासक ही नहीं था, वह सर्वोत्कृष्ट धनुर्धारी भी था। धीरे-धीरे रघु के बचपन से यौवन फूटने लगा, जिससे उसका शरीर सुन्दर और गम्भीर दिखाई देने लगा-मानो बछड़ा विशाल बैल की पदवी को छू रहा हो, मानो हाथी का बच्चा गजराज के रूप में परिणत हो रहा हो। समय अनुकूल देखकर राजा ने रघु का दीक्षान्त-संस्कार किया, और विधिपूर्वक विवाह कर दिया। अब तो रघु की कलाएं प्रतिदिन बढ़ने लगीं। जब उसका जवानी से भरा हुआ शरीर लम्बे और बलिष्ठ बाहु, उभरे हुए कंधे और विशाल वक्षस्थल दृष्टिगोचर होते थे, तब दिलीप का शरीर छोटा प्रतीत होने लगता था। परन्तु जब रघु की आंखों पर दृष्टि पड़ती थी, तब वे पिता के सामने सदा झुकी हई दिखाई देती थीं। उचित अवसर देखकर, सम्राट् दिलीप ने अपने कन्धों का बोझ हल्का करने के लिए रघु को युवराज के पद से विभूषित कर दिया। इससे उसकी शक्ति और भी अधिक असह्य हो गई, मानो अग्नि को 1. वायु की सहायता मिल गई हो, मानो बादलों के हट जाने से सूर्य का तेज चमक उठा हो और मानो गण्डस्थल से मद फूट पड़ने के कारण हाथी का बल बढ़ गया हो।

           चक्रवर्ती आर्य राजाओं की पद्धति का अनुकरण करते हुए, रघु को युवराज के पद पर नियुक्त करके सम्राट् दिलीप ने सौ अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प किया। अश्व की रक्षा का कार्य युवराज रघु और उसके अनुयायी राजपुत्रों की सेना को सौंपकर राजा यज्ञ करने में संलग्न हो गया। इस प्रकार निन्यानवे अश्वमेध यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधा के पूरे कर लिए । जब सौंवी बार अश्वमेध का घोड़ा दिग्विजय के लिए निकाला तो युवराज और उसके धनुर्धारियों ने आश्चर्य से देखा कि अकस्मात् उनके सामने से घोड़ा लुप्त हो गया है। कुमार की सेना घबराकर रुक गई। कुमार भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसी समय नन्दिनी धेनु मानो कुमार के संकट को टालने के लिए वहां आ पहुंची। रघु ने उसे दैवी संदेश समझकर नन्दिनी के अंगजल से अपनी आंखों को धो डाला। धोने पर उसकी आंखें परोक्ष को देखने लगी, जिससे उसने क्या देखा कि स्वयं स्वर्ग के राजा इन्द्र यज्ञ के घोड़े को लिए जा हैं। घोड़ा बार-बार छूटने की चेष्टा कर रहा है और इन्द्र का सारथि उसे रोक रहा है। हरे रंग के सौ घोड़ों और सौ चक्षुओं वाले देवराज को कुमार ने आसानी से पहचान लिया, और आकाश-मण्डल को गुंजा देने वाले गम्भीर स्वर से उन्हें मानो पीछे लौटाते हुए कहा हे देवताओं के राजा, यज्ञ का भाग प्राप्त करने वाले देवताओं में सबसे पहला स्थान आप ही का है। मेरे पिता निरन्तर यज्ञ करने में संलग्न हैं आश्चर्य की बात है कि आप ही उसमें विष्नकारी हो रहे हैं। आप त्रिलोकी के रक्षक हैं। जो लोग यज्ञ का नाश करते हैं, दिव्यदृष्टि से आप ही उनका नियन्त्रण करते हैं। यदि आप ही धर्मात्मा लोगों के कार्यों में विघ्नकारी बनने लगेंगे, तो धर्म कहां रहेगा? इस कारण भगवन् यज्ञों के अंग इस अश्व को आप छोड़ दीजिए। मनुष्यों को वेदमार्ग दिखलाने वाले आप जैसे महानुभावों को मलिन मार्ग पर नहीं चलना चाहिए। য के इस प्रगल्भ वचन को सुनकर देवराज ने अपने रथ को लौटा दिया और उत्तर दिया हे राजपुत्र, तुमने जो बात कही, वह ठीक ही है, परन्तु यशस्वी पुरुषों को की रक्षा भी तो करनी चाहिए।

           अपने यश तुम्हीं देखो कि सारे संसार के सामने तुम्हारा पिता यज्ञों द्वारा मेरे यश को धुंधला करने की तैयारियां कर रहा है। जैसे संसार में केवल एक विष्णु हैं और एक महादेव हैं, उसी प्रकार से सौ यज्ञ करने वाला शतक्रतु भी एक मैं ही हूँ। किसी दूसरे व्यक्ति को इस पद को प्राप्त करने का अधिकार नहीं है। इस कारण मैंने तुम्हारे पिता के घोड़े का अपहरण कर लिया। जैसे सगर की सन्तान, कपि मुनि के समीप अश्व के लिए जाकर भस्मसात हो गई थी, तुम भी वैसे ही दुस्साहस मत करो।

            इन्द्र वचन को सुनकर कुमार ने निर्भयतापूर्वक हँसते हुए कहा-यदि आपका यही निश्चय है तो अपना हथियार संभालिए। रघु को विजय किए बिना आप यज्ञ के घोड़े को नहीं ले जा सकेंगे। रघु ने धनुष में तीर लगाने के लिए तूणीर की ओर हाथ बढ़ाया। रघु के चलाए बलवान तीर की हृदय पर चोट खाकर देवराज का कोप भी भड़क उठा और उसने नए बादलों पर शोभायमान होनेवाले इन्द्रधनुष के सदृढ़ विशाल और सुन्दर धनुष पर अमोघ बाण चढ़ाया। देवराज का बाण रघु की छाती पर आकर बैठा। उसे अब तक राक्षसों के रूधिर पीने की आदत थी उसने पहली बार मानो बड़ी उत्सुकता से मनुष्य का रक्त पिया। इस पर कुमार का रोष भी प्रचण्ड हो गया और उसने देवराज की उस भुजा पर जिसकी अंगुलियां ऐरावत के अंकुश से कठोर हो गई थीं और जिस पर देवों की महारानी शची द्वारा बनाए हुए मांगलिक चिह्न विद्यमान थे, अपने नाम से अंकित तीर आरोपित कर दिया। साथ ही कुमार ने मोर के पंख के समान आकृति वाले एक बाण से इन्द्र की वजांकित ध्वजा को काट डाला। उससे तो देवराज को ऐसा अनुभव होने लगा, मानो देवताओं की श्री ललना के केशों पर हाथ डाला गया हो। युद्ध की भीषणता और भी बढ़ गई। आकाश में विमानों पर बैठे हुए देवगण और पृथ्वी पर से सैनिक लोग उन दोनों विजय की इच्छा रखने वाले वीरों के अद्भुत युद्ध को आश्चर्यपूर्वक देख रहे थे इन्द्र और रघु के धनुष से निकले हुए, क्रमशः नीचे बरसने और ऊपर जाने वाले तीरों से अन्तरिक्ष आच्छादित हो गया। 

            जैसे अपनी विद्युत से लगाई जंगल की अग्नि को बुझाने में स्वयं वादल असमर्थ हो जाता है, उसी प्रकार अनेक शास्त्रास्त्रों का प्रयोग करके भी देवराज कुमार को परास्त न कर सके। उसी समय कुमार के धनुष से निकले हुए अर्द्धचन्द्राकार बाण ने इन्द्र की तूफानी समुद्र के समान गम्भीर गर्जना करती हुई प्रत्यंचा को मुठ्ठी के पास से काट दिया। तब तो देवराज का क्रोध अत्यन्त उग्र हो गया। वज्रधर ने धनुष को नीचे रख दिया और अपनी चोट से पर्वतों के पहलुओं को तोड़ने वाले, चमकते हुए प्रकाश पुंज वज्र को हाथ में ले लिया। जब देवराज का वज़ रघु की छाती पर लगा, तो सैनिकों के आंसुओं के साथ कुमार भी क्षण-भर के लिए पृथ्वी पर गिर गया, परन्तु अभी आंसू पूरी तरह पृथ्वी पर पहुंच भी नहीं पाए थे कि सैनिकों के गगनभेदी जयनादों के साथ रघु भी उठकर खड़ा हो गया। कुमार के इस अपूर्व बल और साहस को देखकर इन्द्र का कोप शांत हो गया। मनुष्य अपने गुणों से ही ऊँचा पद प्राप्त कर सकता है।

        तब संतुष्ट होकर वज्रपाणि ने रघु से कहा --

        हे कुमार, मेरे जिस वज्र के आघात को चट्टानें भी नहीं सह सकतीं, उसे तूने सह लिया। मैं तेरे बल और साहस से प्रसन्न हुआ हूं। बता घोड़े के अतिरिक्त तू क्या चाहता है। उस समय रघु का हाथ तूणीर पर था, जिसमें से सुनहरी नोक वाला बाण आधा निकल चुका था और उसकी फलक से कुमार की अंगुलियां सुनहरी हो रही थीं। देवराज की बात सुनकर कुमार ने हाथ को वहीं थाम लिया, और मीठे स्वर में इन्द्र से कहा-हे प्रभो, यदि आप यज्ञ के अश्व को छोड़ना उचित नहीं समझते तो मेरी प्रार्थना है कि विधिपूर्वक यज्ञ-समाप्ति पर मेरे पिता को यज्ञ के सम्पूर्ण फल का भागी बना दीजिए, ताकि अश्व के न लौटने पर भी यज्ञ सर्वांग-सम्पन्न समझा जाए। एक कृपा और कीजिए कि इस सारी घटना का समाचार अपने दूत द्वारा महाराज तक ऐसे अवसर पर पहुंचा दीजिए, जब वे सभा में विराजमान हों।

            गाना ही होगा-कहकर देवराज स्वर्गलोक के लिए प्रस्थान हो गए और कुछ उदासचित्त से सुदक्षिणा का वीर पुत्र भी अपने घर की ओर लीटा । महाराज को सब समाचार इन्द्र के दूत से प्राप्त हो चुके थे। जब रघु घर पहुंचा तो महाराज ने प्रसन्नतापूर्वक अत्यन्त शीतल हाथों से उसके वज्र द्वारा आहत अंगों का स्पर्श किया।

           इस प्रकार राजा दिलीप ने निन्यानवे यज्ञ पूर्ण करके मानो मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग तक पहुंचने के लिए निन्यानवे सीढ़ियां तैयार कर लीं। राजा का चित्त सांसारिक झंझटों से विरक्त हो चुका था। रघुकुल की मर्यादा के अनुसार दिलीप ने अपने छत्र और चामर वीर पुत्र को सौंप दिए, और देवी सुदक्षिणा को साथ ले, तपोवन के वृक्षों की शीतल और शान्त छाया का आश्रय लिया।


                        दिग्विजय

            सन्ध्या के समय, अस्ताचलगामी सूर्य द्वारा दिए गए तेज को प्राप्त करके जैसे आग अधिक उज्ज्वल हो जाती है, उसी प्रकार अपने पिता से शासन का अधिकार प्राप्त करके रघु चमक उठा। उधर अन्य शासकों के हृदयों में, दिलीप के गौरव को देखकर प्रतिस्पर्धा की जो आग केवल सुलग रही थी, रघु के सिंहासनारूढ़ होने पर ड़क उठी। उस वीर ने पिता के सिंहासन पर और शत्रुओं के मस्तक पर एक ही समय में पैर रखा। राज्याभिषेक के समय जो छत्र रघु के सिर पर छाया गया, वह मानो साक्षात् लक्ष्मी ने अपने परोक्ष हाथों से धारण किया हो । जब चारण लोग उसकी स्तुति के गीत गाते थे, तब प्रतीत होता था कि उनकी वाणी के बहाने स्वयं सरस्वती उपस्थित हुई हैं। जैसे दक्षिण का वायु न बहुत शीतल होता है न बहुत गर्म, उसी प्रकार रघु प्रजा के लिए उचित दण्ड देने के कारण न अत्यन्त उग्र था और न बहुत ढीला। जब आम के पेड़ पर फल आ जाता है तब लोग उसके बौर को भूल जाते हैं। रघु के गुणों से भी दिलीप की स्मृति प्रजा के हृदयों में हलकी होने लगी। युद्ध के क्षेत्र के समान नीति के क्षेत्र में भी वह असाधारण प्रतिभा रखता था। उसके मन्त्री लोग जब कोई सलाह देते थे, तो वह पूर्वपक्ष ही रहता, निर्णायक उत्तरपक्ष रघु का ही होता था । जैसे प्रहर्षक होने के कारण निशानाथ चन्द्र और तेजस्वी होने के कारण सूर्य तपन कहलाता है, वैसे ही प्रजा के जन के कारण रघु का 'राजा' नाम सार्थक था। यद्यपि उसकी भौतिक आंखें विशालता के कानों को छू रहीं थीं, परन्तु उसके असली नेत्र तो शास्त्र थे, जिनसे वह सूक्ष्म समस्या की तह तक पहुंच जाता था।

             इस प्रकार अपने पराक्रम और बुद्धिबल से उसने राज्य में शान्ति की स्थापना कर दी; मानो उसके बढ़ते हुए प्रताप पर साधुवाद देने के लिए कमलों की भेंट लेकर शरदऋतु के रूप में स्वयं राज्यश्री पृथ्वी पर उतर आई। बादल हट गए. आकाश स्वच्छ हो गया, जिससे रघु का और सूर्य का प्रताप एक साथ निर्विघ्न रूप से दिशाओं में व्याप्त होने लगा। इन्द्र देवता ने वर्ष-भर के लिए अपने धनुष इन्द्रधनुष को खींच लिया, और रघु ने अपना धनुष हाथ में लिया। प्रजा की रक्षा के लिए वे दोनों ही धनुर्धारी बारी-बारी से तैयार रहते थे शीतक्रतु की रात में छिटकती हुई चांदनी और रघु के सदा प्रसन्न चेहरे को देखकर प्रजाजनों के हृदय प्रसन्नता का अनुभव करते थे। हंसों की पंक्तियों में, टिमटिमाते हुए तारों में, कुमुदिनी के फूलों और नदियों के स्वच्छ जल में मानो उसके यश की श्वेत आभा छिटक रही थी। ईख की छाया में आराम करने वाली खेतों की निश्चिन्त निर्भय रखवालियां उस प्रजा-रक्षक के बच्चे-बच्चे तक फैले हुए यश का गान करती थीं। शीतऋतु में अगस्त्य के उदय से जल प्रसन्न होने लगा पर रघु के अभ्युदय से शत्रुओं के मन कलुषित होने लगे। इस प्रकार पूरी सजधज के साथ आकर शीतऋतु ने नदियों को उथला कर दिया और रास्तों के कीचड़ को सुखाकर सुगम बना दिया, जिससे शक्ति के अभिलाषी रघु हृदय में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा उत्पन्न हो गई।

            विजय-यात्रा का संकल्प कर लेने पर रघु ने अश्वमेध की मांगलिक विधि का आयोजन किया, जिसमें अग्निदेवता ने यज्ञ-ज्वालाओं की भुजाओं से उसे विजयी होने का आशीर्वाद दिया। उसके पश्चात् रघु ने राजधानी की सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध किया, मार्ग की सुरक्षा के लिए राजभक्त और शक्तिसम्पन्न सेनाएं नियुक्त कीं और गुरुजनों से आशीर्वाद प्राप्त किया। तब उसने अपनी सर्वांगसम्पन्न सेना की कमान संभाली और दिग्विजय की यात्रा का डंका बजा दिया।

           जैसे क्षीरसमुद्र की लहरें दूध की फुहार से विष्णु भगवान् की पूजा करती हैं, उसी प्रकार नगर की वृद्ध महिलाओं ने लाजों की वर्षा करके विजय-यात्रा समय उसका अभिनन्दन किया।

           रघु ने दिग्विजय की यात्रा का आरम्भ पूर्व दिशा से किया। उसकी सेनाएं जब ऊंची लहराती हुई ध्वाजाओं से शत्रुओं को ललकारती हुई राजधानी से निकलीं, तब रथों के पहियों और मेघों के समान विशाल तथा काले हाथियों के पैरों से उठी हुई धूल के कारण आकाश पृथ्वी के समान और पृथ्वी आकाश के समान प्रतीत होने लगी। राजा की मानवी सेना के साथ-साथ मानो एक और चतुरंगिणी सेना भी चली-आगे-आगे राजा का प्रताप, उसके पीछे सेना का सिंहनाद, फिर सेना से उठी हुई धूल और अन्त में रथादि। राजा के दृढ़ निश्चय और शक्ति के सामने मरुस्थलों में जल बहने लगा, बड़ी-बड़ी नदियाँ उथली हो गई और बड़े-बड़े जंगल सपाट मैदान बन गए। पूर्व की ओर उमड़ती हुई सेना का नेतृत्व करता हुआ रघु ऐसे शोभायमान हो रहा था, जैसे महादेव के जटाजूट से बहती गंगा की धारा का प्रदर्शन करता हुआ भगीरथ। जैसे मस्तहाथी जंगल के जिस मार्ग से गुजर जाता है, वहां वृक्षों के बिखरे हुए फल, उखड़ी हुई जड़ें और टूटे हुए तने ही शेष दिखाई देते हैं, वैस ही रघु जिन देशों से आगे बढ़ता गया, उनमें परास्त और झुके हुए राजवंशों के खंडहर ही दृष्टिगोचर होते थे पूर्व दिशा के देशों को जीतता हुआ विजेता रघु आगे ही आगे बढ़ता गया, यहां तक कि उसकी सेनाएं नारियल के वनों से श्यामल समुद्र-तट पर जा पहुंचीं। अकड़कर खड़े होनेवाले पेड़ों का मानभंग करने वाले उस सेनापति के सामने बेंत की भांति सिर झुकाकर सुह्य देशवासियों ने अपनी प्राणरक्षा की । रघ ने और आगे बढ़ कर नौकाओं की सहायता से युद्ध के लिए उद्यत बंग लोगों को पछाड़ा और गंगा की मध्यवर्ती धाराओं के द्वीपों में अपनी विजय-ध्वजाएं गाड़ दीं। जैसे एक खेत से उखाड़कर दूसरे खेत में लगाने पर, उत्कृष्ट वासुमती धान के पौधे बालों के बोझ से अधिक झुक जाते हैं, उसी प्रकार जब रघु ने बंगों को उखाड़कर फिर से जमा दिया तो उन्होंने रघु के चरणों तक झुककर अधीनता स्वीकार कर ली। यहां उसके मार्ग में कपिशा नाम की नदी आई। 

          उसपर उसने हाथियों का पुल बनाया और उससे पार होकर उत्कल के राजाओं द्वारा दिखलाए हुए मार्ग से कलिंग देश की ओर प्रयाण किया मार्ग में महेन्द्र पर्वत आया। जैसे हठीले हाथी को वश में लाने के लिए हाथीवान उसके मस्तक पर अंकुश आरोपित करता है, उसी प्रकार रघु ने महेन्द्र की चोटी पर अपने प्रताप की ध्वजा गाड़कर प्रभुत्व की स्थापना की। कलिंग देश के शासक ने हाथियों की सेना और शस्त्रास्त्रों से रघु का उसी प्रकार स्वागत किया जैसे पंखों को काटने को आए इन्द्र का स्वागत पर्वतों ने शिलाओं से किया था। शत्रुओं के पैने बाणों की वृष्टि से राजा का जो स्नान हुआ, वही मंगल-स्नान बन गया। उससे प्रादुर्भूत विजय-श्री ने राजा के गले में विजय का हार पहना दिया। विजय प्राप्त करने के पश्चात् रघु के योद्धाओं ने महेन्द्र पर्वत पर ताम्बूलों के पत्तों के दोनों से नारियल की सुरा और कीर्ति-दोनों का साथ-साथ पान किया। कर्लिंगराज को परास्त करके धर्मी विजेता ने उसका देश उसी को वापस कर दिया। उसने केवल उसकी राज्यश्री का अपहरण किया, राज्य का नहीं। कलिंग-विजय के पश्चात् आशातीत सफलताओं से विभूषित रघु ने फूलों से लदे हुए सुपारी के वृक्षों से शोभायमान समुद्रतट के रास्ते से दक्षिण की ओर प्रयाण किया। मार्ग में कावेरी नदी पड़ी। राजा की सेना के मस्तक-जल से सुगंधित होकर जब नदी का जल नदियों के स्वामी समुद्र की गोद में पहुंचा, तो वह शकित-सा हो गया।


दिग्विजय की इच्छा से आगे बढ़ता हुआ रणु मलयादि की तराई में जा पहुंचा। वहां उसकी सेनाओं ने छावनी डाली, तो घबराए हुए हारीत पक्षी बांसों के घने जंगलों में भटककर इधर-उधर उड़ने लगे। सेना के घोड़ों ने इलायची के पौधों को रौंद डाला तो उससे सुगन्धि की


जो रेणु आकाश में फैली, वह मस्त हाथियों के स्वभावतः सुगन्धित मदवाले गण्डस्थलों पर पड़कर एकीभूत हो गई। पांव के बन्धन को तोड़कर भागनेवाले हाधियों ने जब चन्दन के पेड़ों से अपनी गर्दन को रगड़ा वहां सांपों के लिपटने से गड्ढे बने हुए थे, अतः तब उनके गले के बन्धन टूटे नहीं। जिस दक्षिण दिशा में जाकर सूर्य का तेज भी मन्द हो जाता है, रघु के बहां पहुंचने पर पाण्ड्य जाति के लोग प्रताप को न सह सके और समुद्र तथा ताम्रपर्णी नदी से एकत्र किए हुए अपने चिरसंचित यश के समान उज्ज्वल मोतियों की भेंट लेकर सेवा में उपस्थित हुए। आगे बढ़कर रघु ने दक्षिण दिशा के सह्य पर्वत में प्रवेश किया परशुराम के द्वारा सह्य पर्वत से दूर हटाया गया समुद्र भी, किनारे-किनारे जानेवाली रघु की सेनाओं के कारण पर्वत से लगा हुआ प्रतीत हो रहा था। विजेता की सेना के समीप आने पर घबराहट के कारण केरल की स्त्रियों को केसरादि फूलों से केशों का श्रृंगार करने का होश न रहा तो सेनाओं की धूल ही सिर के श्रृंगार का साधन बन गई। केतकी के फूलों का रज, मुरला नदी का स्पर्श करनेवाले वायु के झोंकों द्वारा जब रघु की सेनाओं के वस्त्रों पर पड़ा तो उसने वहां इत्र-फुलेल का काम दिया। आगे बढ़ते हुए सैनिकों और घोड़ों के कवचों की सम्मिलित ध्वनि इतनी ऊँची हुई कि राजताली जंगल में गूंजती हुई हवा की ध्वनि उससे परास्त हो गई। पुन्नाग के फूलों पर मंडराते हुए भौरे खजूर के तने से बंधे हुए हाथियों के बहनेवाले मद की सुगन्ध से आकृष्ट होकर उनके गण्डस्थलों पर टूट पड़े। जिस समुद्र ने मांगने पर परशुराम को अपना किनारा खाली कर दिया था, उसने बिना मांगे ही अपने द्वीप राजा द्वारा दिए गए कर के बहाने से रघु की सेवा में भेंट स्वरूप उपस्थित किए। त्रिकूट पर्वत की चट्टानों पर रघु की सेना के मस्त हाथियों ने दांतों से जो निशान बनाए, उनसे मानो वह पर्वत ही विजेता का जयस्तम्भ बन गया।

             वहां से वह संयमी, पारसीक लोगों को जीतने के लिए स्थल के मार्ग से रवाना हुआ-जैसे योगी इन्द्रिय नाम के शत्रुओं को तत्वज्ञान से जीतने के लिए सन्नद्ध होता है। जैसे बरसात के अतिरिक्त अन्य त्रातुओं में सूर्य की प्रातःकालीन किरणें पद्मों को कुम्हला देती हैं, उसी प्रकार रघु के प्रताप ने ययन-स्त्रियों के सुरागन्ध वाले मुखकमलों को मुरझा दिया। पश्चिम के घुड़सवार योद्धाओं से उसका ऐसा घोर युद्ध हुआ कि धूल में लड़नेवालों का अनुमान धनुष की टंकार से ही किया जा सकता था। काली काली मधुमक्खियों से सने हुए शहद के समान दीखनेवाले यवन लोगों के दढ़ियल चेहरों को काट-काटकर उसने पृथ्वी को ढक दिया। अन्त में वे मुकुट उतार कर उसके चरणों में झुक गए। महापुरुषों का क्रोध तभी तक रहता है, जब तक दूसरा न झुक जाए। वहां रघु के विजयी योद्धाओं ने अंगूर के झुरमुटों में बहुत उत्कृष्ट मृगछालाओं पर लेटकर और अंगूरी शराब पीकर अपनी थकान को उतारा।

          उसके पश्चात् सूर्य के समान तेजस्वी रघु ने उत्तर दिशा के जलसदृश निवासियों को सुखाकर नामशेष कर देने के लिए प्रयाण किया। काश्मीर में सिन्धु नदी के तट पर लौटकर विजेता के अश्वों ने अपनी थकान को दूर किया, और उसने उनके कन्धों पर जो केसर लग गया-उसे झकझोरकर उतार दिया। रघु ने हूण योद्धाओं को परास्त करके उनकी स्त्रियों को वैधव्य-दुःख दिया, वह रो-पीटकर लाल हुए उनके कपोलों से व्यक्त होता था। कम्बोज देश के निवासी विजेता के प्रताप को न सह सके और रघु की सेना के हाथियों के रस्सों से बंधने के कारण झुके हुए अखरोट के पेड़ों के साथ वे भी झुक गए। कम्बोज लोग बहुत-साधन और देश के प्रसिद्ध घोड़ों की जो भेंट लेकर बार-बार रघु की सेवा में उपस्थित हुए, उसे तो रघु ने अपने खजाने में प्रवेश दे दिया परन्तु विजय से उत्पन्न होनेवाले अभिमान को हृदय में प्रवेश नहीं दिया।

       कम्बोज को जीतने के पश्चात् अश्वों के खुरों से उठे हुए गेरू आदि धातुओं के रज से शिखरों की ऊँचाई को मानो और अधिक बढ़ाते हुए राजा रघु ने हिमालय पर चढ़ाई बोल दी। सेनाओं के कोलाहल से जागे हुए राजा रघु ने हिमालय पर चटाई कर दी। सेनाओं के कोलाहल से जागे हुए गुफावासी सिंहों ने केवल गर्दन फेरकर बाहर की ओर देखा, मानो कह रहे हों कि तुमसे निर्बल नहीं, जो डरें। भूर्जपत्रों की मर्मरध्वनि और बांसों के जंगलों में गूंज पैदा करनेवाले गंगाजल के सम्पर्क से शीतल पवनों ने हिमालय की चोटियों पर रघु का स्वागत किया। उसके सैनिकों ने कस्तूरी के संसर्ग से सुगन्धित शिलाओं पर बैठकर और नमेरु वृक्षों की छाया में सुस्ताकर अपनी थकान को उतारा। वहां राजा की सेनाओं का पहाड़ी जातियों से युद्ध हुआ। उस युद्ध में फेंके गए बाणों और शिलाओं से जो संघर्ष हुआ उससे आग की चिनगारियां चारों ओर फैल रही थीं। रघु से परास्त होकर उत्सव प्रिय लोग अपने उत्सवों को भूल गए और किन्नरगण उसी के विजयगीत जाने लगे। पहाड़ी लोग जब बहुमूल्य रत्नों की भेंट लेकर राजा की सेवा में उपस्थित हुए, तब राजा ने हिमालय की और हिमालय ने राजा की शक्ति को ठीक-ठीक पहचाना। आगे कैलास पर्वत आरम्भ होता था। उसे तो रावण जैसा राक्षस भी हिला देगा, मानो इसी विचार से रघु ने उसे छोड़ दिया और हिमालय से नीचे उतर आया।

              उसके पश्चात् रघु ने लौहित्य नदी को पार किया। तब तो प्राग्ज्योतिष का राजा और रघु के हाथियों के खूंटे बनने के कारण कालागुरु के वृक्ष एकसाथ ही कांप गए। प्राग्ज्योतिष् का शासक विजेता के रथों से उठे हुए सूर्य को ढक देनेवाले मेघों को भी नहीं सह सका, सेनाओं को तो सहता ही क्या? आगे बढ़ने पर कामरूप के राजा ने मस्त हाथियों की उन श्रेणियों की भेंट देकर देवताओं के राजा से भी अधिक पराक्रमशील रघु का स्वागत किया, जिनसे वह अन्य विरोधियों का मार्ग रोका करता था । उसने विजेता के चरणों की रत्नरूपी फूलों से पूजा की। इस प्रकार राज्यछत्र उतर जाने के कारण खुले हुए नरेशों के मस्तकों पर अपने रथ की उड़ी हुई धूल का टीका लगाता हुआ रघु राजधानी को लौट आया। मेघों के समान सज्जन लोग जो कुछ लेते हैं, वह केवल देने के लिए ही। रघु ने विजय-यात्रा से लौटकर प्राप्त हुई अतुल सम्पत्ति का दान करने के लिए विश्वजित् यज्ञ का आयोजन किया।

              रघु के विश्वजित् यज्ञ में दूर-दूर के राजा एकत्र हुए। पराजित होने के कारण उनके हृदयों में जो थोड़ा-बहुत दुःख था, उसे विजेता ने मंत्रियों की सहायता से बढ़े-चढ़े आदर-सत्कार द्वारा शान्त कर दिया। यज्ञ के अन्त में रघु से अनुमति प्राप्त करके राजा लोग अपने घरों को वापस चले गए; जिनसे उनके परिवारों की चिर-वियोग के कारण हुई चिन्ता दूर हो गई। विदा होते समय राजाओं ने रघु के रेखाध्वज, वज़ और छत्र जैसे चक्रवर्ती चिहों से युक्त चरणों में सिर झुकाकर नमस्कार किया तो उनके किरीटों से गिरे हुए फूलों के पराग से रघु के चरणों की अंगुलियां गौर हो गई।

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रघुवंश (संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' का हिन्दी रूपान्तर) महाकवि कालिदास /1

रघुवंश  (संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' का हिन्दी रूपान्तर)  महाकवि कालिदास /1

         

                 ******* रघुवंश *******


           (संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' का हिन्दी रूपान्तर)

                                  महाकवि कालिदास

तपोवन की यात्रा 

दिलीप की तपश्चर्या 

रघु की अग्नि-परीक्षा

दिग्विजय

विश्वजित् यज्ञ

इन्दुमती का स्वयंवर

अज का राजतिलक

अज का स्वर्गवास

पुत्र-वियोग का शाप 

राम-जन्म 

राम-विवाह

लंकेश-वध

भरत-मिलाप

वैदेही-वनवास

राम का शरीर-त्याग

उत्तराधिकारी कुश

राजा अतिथि

अतिथि के वंशज

पतन की ओर


                        तपोवन की यात्रा

              रघुवंश के संस्थापक यशस्वी रघु के पिता महाराज दिलीप ने पृथ्वी के सबसे प्रथम सम्राट् वैवस्वत मनु के उज्ज्वल वंश में जन्म लिया था। दिलीप बहुत बलवान और तेजस्वी राजा था, मानो साक्षात् क्षात्र धर्म का अवतार हो। वह जैसा बलवान था, वैसा ही बुद्धिमान, विद्वान् और कर्मशील था । प्रजा उसे पिता के समान मानती थी। विरोधी और आततायी उसके दंड से डरते थे। समुद्र-रूपी खाई से घिरे हुए पृथ्वी-रूपी किले का वह इस सुगमता से शासन करता था, मानो एक नगरी का शासन कर रहा हो।

            जैसे यज्ञ की संगिनी दक्षिणा है, उसी प्रकार राजा दिलीप के साथ अटूट सम्बन्ध से बंधी हुई रानी सुदक्षिणा थी, जिसने मगधवंश में जन्म लिया था । राजा को अन्य सब सुख प्राप्त थे, केवल सन्तान का सुख नहीं था। सन्तान की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान करने का विचार करके राजा ने राज्य की देख-रेख का भार मन्त्रियों के कन्धों पर डाल दिया और महारानी को साथ ले गुरु वसिष्ठ के आश्रम की ओर प्रयाण किया। सुसज्जित रथ में बैठे हुए राजा और रानी ऐसे शोभायमान हो रहे थे, जैसे घने सावन के बादल में बिजली और बरसाती पवन शोभा पाते हैं। उनकी आश्रम-यात्रा बहुत ही मनोरंजक और मंगलसूचक रही। फूलों के पराग को चारों दिशाओं में बिखेरने वाला, साल के रस से सुगन्धित सुखकारी वायु उनकी सेवा कर रहा था। मोरों की षडज के सदृश स्वरवाली केकाएं उनके कानों को आनन्दित कर रही थीं और हरिणों के जोड़े रास्ते के समीप ही खड़े होकर उनकी ओर निहार रहे थे। उन हरिणों की आंखों में राजा और रानी एक-दूसरे की आंखों की छवि देखकर प्रसन्न हो रहे थे । मार्ग में अहीर- बस्तियों के जो मुखिया लोग, ताजे मक्खन की भेंट लेकर उपस्थित होते थे, उनसे वे दोनों जंगली वनस्पतियों के नाम पूछते थे। इस प्रकार मार्ग के सुन्दर दृश्य देखते हुए महारानी सुदक्षिणा और महाराज दिलीप दिन छिपने के समय महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में पहुंच गए।

             वसिष्ठ मुनि के आश्रम में उस समय सन्ध्याकाल की चहल-पहल थी। तपस्वी लोग समिधा, कुशा और फल इकट्ठे करके जंगल से लौट रहे थे; ऋषि पलिसा द्वारा बिखेरे हुए अन्न से खिंची हुई मृगों की टोलियां कुटियों के दरवाजां पर इकट्ठी हो रही थीं, मुनि कन्याएं आश्रम-वृक्षों को सींचकर दूर हट गई थीं, तावि पक्षी निर्भय होकर थामलों में से पानी पी सकें। होम से उठा हुआ धुआ वाहर से आनेवाले अतिथियों को पवित्र कर रहा था।

              आश्रम में पहुंचने पर राजा दिलीप ने सारथि को आज्ञा दी कि घोड़ों को आराम दो। वे स्वयं रथ से उतर गए और फिर रानी को उतार लिया सभ्यता के नियमों से परिचित तपस्वी लोगों ने सपत्नीक राजा का यथोचित आदर-सत्कार किया। जब ऋषि वसिष्ठ सायंकाल के सन्ध्योपासना से निवृत्त हो गए, तब राजा और रानी उनकी सेवा में उपस्थित हुए। ऋषि के समीप उस समय उनकी पतनी अरुन्धती विराजमान थी, मानो स्वाहा यज्ञ की अग्नि के समीप विराज रही हो राजा और राजपत्नी ने ऋषियुगल के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया। ऋषियुगल ने उन्हें आशीर्वाद दिया।

              ऋषि को जब यह सन्तोष हो गया कि अतिथि-पूजा से राज-युगल की थकान उतर गई है, तब उन्होंने राज्य के कुशल-क्षेम के सम्बन्ध में प्रश्न किए। राजा ने उत्तर दिया-हे गुरो, आपके प्रसाद से राज्य में सब कुशल है। आपके मन्त्रबल ने मेरे तीरों को व्यर्थ-सा सिद्ध कर दिया है। आपके यज्ञों में, अग्निकुण्ड में डाला हुआ हवि मेघों से जल बनकर बरस जाता है, जिससे सदा सुभिक्ष बना रहता है। मेरी प्रजा सौ साल तक जीती है और निर्भय होकर रहती है। यह आपके ब्रह्म तेज का ही फल है। यह सब कुछ होते हुए भी, हे, गुरुवर, रत्नों को पैदा करने वाली यह द्वीप-सहित भूमि मेरे मन को संतुष्ट नहीं कर सकती, क्योंकि आपकी इस बहू की गोद संतान-रूपी रत्न से शून्य है। भविष्य में कुल की लता को कटता देखकर मेरे पूर्वपुरुष अवश्य ही परम दुःखी होते होंगे, और मेरी अर्पित जलांजलि उनके मुख में जाने से पूर्व ही चिन्ता के निश्वासों से कुछ गर्म हो जाती होगी। जैसे स्नान रहित हाथी को चोदने वाला खूंटा कष्ट देता है, सन्तान न होने 1. से पितृण का सन्ताप मुझे उसी प्रकार तपा रहा है। हे तात, जिस विधि से मैं पिता करण से मुक्त हो सकूं, वह कीजिए। इक्ष्वाकुवंश के लोग प्रत्येक कठिनाई की नदी को आपके विधान से ही पार करते रहे हैं।

              राजा के वचन सुन ऋषि क्षण-भर आंखें मूंदकर ध्यान में मग्न रहे, मानो किसी तालाब में सब मछलियां सो गई हों। ध्यानावस्था में ऋषि ने जो कुछ देखा, वह राजा को बतलाते हुए कहा हे राजन्! एक बार देवराज इन्द्र से मिलकर जब तुम स्वर्ग से पृथ्वी की ओर आ रहे थे, सुरभि गौ कल्पतरु की छाया में विश्राम कर रही थी। रानी ऋतुस्नाता है, इस विचार से तुम घर आने की जल्दी में थे, और पूजा के योग्य सुरभि की उपेक्षा करके चले आए। सुरभि ने इस तिरस्कार से रुष्ट होकर तुम्हें शाप दिया कि जब तक तुम मेरी सन्तान की आराधना न करोगे, तब तक तुम्हारे सन्तान न होगी। आकाशगंगा के ठाठे मारते हुए जल-प्रवाह में दिग्गज स्नान कर रहे थे, जिनके शोर के कारण सुरभि का शाप न तुमने सुना और न तुम्हारे सारथि ने । जो पूजा के योग्य हैं, उनका तिरस्कार करने से मनुष्य के सुखों का द्वार बन्द हो जाता है । तुम्हारी इच्छाओं के द्वार की सांकल बन्द होने का भी यही कारण हुआ। सुरभि आजकल प्राचेतस् के यज्ञ के निमित्त पाताल में गई है। उसकी पुत्री हमारे इस आश्रम में विद्यमान है। तुम और तुम्हारी पत्नी उसे सेवा से सन्तुष्ट करो, तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी ।

             ऋषि के वाक्य अभी समाप्त भी न हुए थे कि वन से लौटती हुई नन्दिनी नाम की सुन्दर-स्वस्थ गौ सामने आ गई। नन्दिनी का रंग नई कोंपल के समान चिकना और लालिमा लिए हुए था। उसके माथे पर सफेद रोएं का टीका ऐसे शोभायमान हो रहा था, जैसे सन्ध्याकाल के आकाश पर चन्द्रमा। बछड़े को देखकर स्वयं टपकनेवाले पावन दूध की धार से वह कुण्डोध्नी पृथ्वी को पवित्र कर रही थी। उसके खुरों से उठने वाले रज के रेणुओं से स्नान करके राजा ने मानो तीर्थस्नान कर लिया। ऋषि ने नन्दिनी के उस समय के दर्शन को मनोरथ-सिद्धि के लिए कल्याणकारी जानकर राजा से कहा :

             राजन्, नाम लेते ही यह कल्याणी सामने आ गई, इससे तुम अपना मनोरथ पूरा हुआ मानो। जैसे विद्या को अभ्यास से प्रसन्न किया जाता है, इसी प्रकार वनवासियों-सा रहन-सहन करके निरन्तर सेवा द्वारा नन्दिनी को प्रसन्न करो । इसके चलने पर चलो, ठहरने पर ठहरो, बैठने पर बैठो और जल पीने पर जल पीयो । बहू को भी चाहिए कि इसकी पूजा करे। वन जाने के समय कुछ कदम तक छोड़ने जाए और वापस आने पर कुछ कदम आगे बढ़कर स्वागत करे। जब तक यह प्रसन्न न हो तब तक हे राजन्, तुम इसकी सेवा करो। तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी और तुम्हारा कुल अविच्छिन्न रहेगा।

            राजा ने सिर झुकाकर गुरु के आदेश को स्वीकार किया। इस बातचीत में रात हो गई थी। मधुर सत्य बोलनेवाले उस ऋषि ने प्रजाओं के पालक दिलीप को सोने की आज्ञा देते हुए ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि राजा का रहन-सहन वनवासियों के सदृश हो जाए। राजा और रानी, कुलपति द्वारा बतलाए हुए झोंपड़े में कुशों की सेज पर रात-भर सोए। प्रातःकाल होने पर आश्रम के छात्रों के वेदपाठ से उनकी नींद खुली।


                        दिलीप की तपश्चर्या

              प्रातःकाल होने पर रानी सुदक्षिणा ने नन्दिनी का गन्ध और माला से सत्कार किया जब बछड़ा दूध पीकर बांधा जा चुका, तब तपस्वी राजा ने गौ को खूंटे से खोल दिया। जैसे स्मृति-ग्रंथ वेदों का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार नन्दिनी के खुरों के स्पर्श से पवित्र वनमार्ग पर, महारानी भी पीछे-पीछे चलीं। दयावान् राजा ने पत्नी को वन जाने से रोककर नन्दनी की रक्षा का बोझ अपने कन्धों पर लिया, मानो चार स्तनरूपी समुद्रोंवाली पृथ्वी की रक्षा का बोझ संभाला हो । राजा को वन की ओर जाते देखकर राजपुरुष भी पीछे-पीछे चलने लगे। राजा ने उन्हें रोक दिया क्योंकि मनु की सन्तान दूसरे से रक्षा नहीं चाहती, अपने बाहुबल पर ही भरोसा रखती है। वन में सम्राट ने नन्दिनी के भोजन के लिए स्वादु-स्वादु घास एकत्र की, खुजली होने पर खुजलाया, जंगली दंशों को हटाया और रास्ते की रुकावटों को दूर करके इच्छानुसार घूमने का मार्ग साफ किया। जब नन्दिनी ठहरती, तब राजा भी ठहर जाता, जब वह चलती तो चलने लगता; जब नन्दिनी बैठ जाती, तब राजा बैठ जाता, और जब वह जल पीती, तब जलपान करता था। इस प्रकार राजा छाया के समान उसके साथ-साथ चलता था। जैसे जब गजराज के कपोलों 1. से मदन चू रहा हो, तब भी डीलडौल के कारण उसकी गजराजता का अनुमान लगाया जा सकता है, उसी प्रकार सब राजसी ठाठ का परित्याग कर देने पर भी, चेहरे के तेज से राजा का राजपन साफ-साफ झलक रहा था। लताओं से केशों का जूड़ा बांधे हुए मुनिवेश में बह नरपति, मुनि की होम-धेनु की रक्षा के बहाने हिंसक जन्तुओं को नियन्त्रण में लाने के लिए जंगल में घूम रहा था । सब सेवकों का विसर्जन कर देने के कारण बिल्कुल एकाकी, वह वरुण देवता के समान ओजस्वी राजा, जिस मार्ग से निकला था, उसके दोनों ओर लगे वृक्ष चहचहाते पक्षियों के शब्दों से उसका जय-जयकार करते थे। 

          वृक्षों पर चढ़ी हुई कोमल लताएं पवन-रूपी हायों से अग्निसमान तेजस्वी दिलीप पर पुष्पवर्षा कर रही थीं, मानो नगर की कन्याएं अपने घरों की अटारियों से लाजों की वर्षा कर रही हों। खोखले बांसों में तारस्वर से गूंजते हुए पवन की ध्वनि द्वारा वनदेवता उसके यश का गान कर रहे थे हिमालय की गोद में बहनेवाली नदियों के तुषार के स्पर्श से शीतल और वृक्षों के फूलों के सम्पर्क से सुगन्धित पवन, छाते के विना धूप में भ्रमण करते हुए राजा की थकान को उतार रहा था। दिन व्यतीत हो जाने पर, अपने परिभ्रमण से दिशाओं को पवित्र करके, कोंपल के समान, तांबे जैसी रंगवाली सन्ध्या और मुनि की गौ घर की ओर लौटी। जिसके दूध से देवता, पितृगण और अतिथियों को सन्तुष्ट किया जाता था, राजा उस पवित्र गौ के पीछे-पीछे चला। नन्दिनी पीछे चलनेवाले राजा से ऐसे शोभायमान हो रही थी, जैसे श्रद्धा विधिपूर्वक किए गए अनुष्ठान से शोभायमान होती है। उस समय जंगली सूअर जोहड़ों में से निकल रहे थे, मयूर अपने डेरों की ओर जा रहे थे, और हरिण दिन के भ्रमण से लौटकर हरे मैदानों में विश्राम कर रहे थे। दूध से भरे हुए स्तनों के कारण नन्दिनी और शरीर के विशाल डीलडौल के कारण राजा दिलीप, दोनों ही ऐसी शानदार चाल चल रहे थे कि आश्रम के मार्ग की शोभा दस गुनी हो गई थी।

              वसिष्ठ की गौ के पीछे-पीछे आते हुए भर्ता को रानी अत्यन्त प्यासे नेत्रों से देर तक एकटक निहारती रही। आगे राजा, पीछे रानी और बीच में नन्दिनी-आश्रम में इस क्रम से जब वे तीनों पहुंचे, तो ऐसा प्रतीत होता था, मानो दिन और रात के मध्य में सन्ध्या पधार रही हो। ठिकाने पर पहुंचकर सुदक्षिणा ने अक्षतों का पात्र हाथ में लेकर नन्दिनी की प्रदक्षिणा की, फिर प्रणाम किया और अन्त में फल-सिद्धि के द्वार के सदृश श्रृंगों के मध्यस्थान की पूजा की। नन्दिनी बछड़े के लिए उत्सुक थी, तो भी उसने शान्तभाव से पूजा ग्रहण कर ली, इससे राजा-रानी बहुत प्रसन्न हुए। भक्तिपूर्वक उपासित हुए प्रार्थियों के प्रति ऐसे पावन व्यक्तियों की प्रसन्नता के चिह्न पहले ही प्रकट हो जाते हैं।

            इसी प्रकार राजा की दिनचर्या चलने लगी। वह रात को नन्दिनी के सो जाने पर सोता, प्रातः उठने पर उठता और दिन चढ़ने पर नन्दिनी के पीछे-पीछे धनुष हाथ में लेकर जंगल चला जाता। सम्राट् और सम्राज्ञी को यह व्रत पालन करते हुए इक्कीस दिन व्यतीत हो गए।

           एक दिन नन्दिनी अपने सेवक के भाव की परीक्षा करने के लिए गंगा के प्रपात के समीप हरे-हरे घास से सुशोभित हिमालय की गुफा में घुस गई । कोई हिंसक प्राणी भी मुनि की यज्ञ-धेनु का कुछ नहीं बिगाड़ सकता, इस भावना से राजा बिल्कुल निश्चिन्त था और पर्वत की शोभा निहार रहा था कि एक शेर ने धेनु को धर दवाया। उसका आर्तनाद गुफा से प्रतिध्वनित होकर गुंज उठा जिसने हिमालय में लगी हुई राजा की दृष्टि को मानो रासों से पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। धनुर्धारी दिलीप ने देखा कि उस पाटल गौ के समीप केशरी शेर खड़ा है, मानो तांबे के रंग की चट्टान पर लोध्र का पेड़ खिला हुआ हो। शेर के समान चालवाले राजा के मन में शेर के इस अविनय से अत्यन्त ग्लानि उत्पन्न हुई और उसका हाथ स्वभाव से तूणीर से तीर निकालने के लिए बढ़ा। परन्तु राजा ने दुःख और आश्चर्य से अनुभव किया कि उसका दायां हाथ नख की प्रभा से रंगे हुए तीर की केरी पर पहुंचकर रुक गया-ऐसा गतिहीन हो गया मानो किसी चित्र का अंग हो ।

             क्रोध से भरे हुए फणियर सांप की जो दशा मन्त्र और औषधि द्वारा काटने की शक्ति को रोक देने पर हो जाती है-भुजा के शक्तिहीन हो जाने पर राजा की वही दशा हो गई। वह भड़के हुए तेज से अन्दर ही अन्दर जलने लगा। बलिष्ठ हाथ के रुक जाने के कारण क्रोध और आश्चर्य में पड़े हुए राजा के आश्चर्य को और बढ़ाता हुआ सिंह मनुष्य की भाषा में कहने लगा।

            हे राजन्, अपना हाथ तूणीर से हटा लो। यदि तुम तीर चला दोगे, तो भी वह यहां व्यर्थ ही जाएगा। जो वायु का झोंका पेड़ को जड़ से उखाड़कर फेंक देता है, वह चट्टान से टकराकर व्यर्थ हो जाता है। तुम मुझे साधारण शेर मत समझो। कैलास पर्वत के समान सफेद वृषभ पर बैठने के समय, भगवान शंकर मेरी पीठ को पादयान बनाकर पवित्र करते हैं। मेरा नाम कुम्भोदर है, मैं भगवान का सेवक हूं। यह जो देवदारु का वृक्ष सामने दिखाई दे रहा है, इसे मेरे स्वामी ने अपना बच्चा माना हुआ है। माता पार्वती ने सोने के कलश से पानी देकर इसे ऐसे पाला है, जैसे छाती के दूध से बच्चे को पाला जाता है। एक बार एक जंगली हाथी ने पीठ खुजलाकर इसकी छाल उतार दी थी। उससे मां को ऐसा दुःख हुआ मानो सेनापति कुमार को असुरों के अस्त्रों ने घायल कर दिया हो। तभी से स्वामी ने मुझे इस वृक्ष की रखवाली पर नियुक्त कर दिया है। और यह नियम बना दिया है कि जो शिकार यहां स्वयं आ जाये, उसी से अपना पेट भरता रहूं। जैसे राहू को तृप्ति के लिए चन्द्रमा का अमृत प्राप्त होता है, आज परमेश्वर ने उसी प्रकार मेरी भूख का निवारण करने के लिए यह बलि भेजने की कृपा की है। हे राजन्, जिसकी रक्षा करनी हो, यदि यत्न करने पर भी शस्त्रों से उसकी रक्षा न हो सके तो अस्त्रधारी को दोष नहीं दिया जा सकता। तुम लज्जा मत करो। तुमने गुरु के प्रति अपनी भक्ति प्रकट कर दी, अब तुम घर लौट जाओ । 

            महाराज ने जब पशुओं के सम्राट के प्रगल्भ वचनों से यह जाना कि भगवान् शंकर के प्रभाव ने उसके हाथों और शस्त्रों की शक्ति को क्षीण कर दिया है, तो उसके मन में अपने प्रति जो ग्लानि का भाव उत्पन्न हुआ था, वह हल्का हो गया। राजा ने सिंह से कहा -- 

            हे मृगेन्द्र, मेरा हाथ शंकर के प्रभाव से रुक गया है, इस कारण मैं जो कुछ कहना चाहता हूं, उसे सुनकर शायद तुम हँस पड़ोगे परन्तु तुम तो प्राणियों के मन की बात भी जानते हो, तब कहने में ही क्या हानि है! सृष्टि की रचना, रक्षा और संहार करने वाले भगवान के सामने मैं सिर झुकाता हूं, परन्तु मैं गुरु के यज्ञ के साधनभूत इस गोधन को नष्ट होता भी तो नहीं देख सकता। सों हे वन के स्वामी! अपनी भूख की मेरे शरीर से निवृत्ति कर लो । सन्ध्या के समय महर्षि की इस धेनु का बछड़ा अपनी मां की बाट जोह रहा होगा, इसे छोड़ दो।

           देवाधिदेव का सेवक राजा दिलीप की बात सुनकर कुछ हँसकर कहने लगा। बोलते समय उसके बड़े-बड़े दांतों की सफेद किरणों से गुफा का अन्धकार नष्ट हो रहा था। उसने कहा - 

          पृथ्वी पर तुम्हारा एकछत्र राज्य है, चढ़ती जवानी है और सुन्दर शरीर है। छोटी-सी बात के लिए सब कुछ त्याग देने का संकल्प प्रकट करते हुए तुम मुझे नासमझ-से प्रतीत होते हो । यदि तुम दया के कारण अपनी बलि दे रहे हो तो सोचो कि तुम्हारे मरने से केवल एक गौ बचेगी, और जीवित रहोगे तो चिरकाल 1. तक सम्पूर्ण प्रजा की, पिता के समान आपत्तियों से रक्षा कर सकोगे। हो सकता है कि तुम्हें गुरु के अग्नि-समान क्रोध से डर लगता हो। उसका निवारण तुम करोड़ों दुधारु गौओं का दान करके कर सकते हो। अतः तुम्हें उचित है कि अपने निरन्तर सुखी और स्वस्थ शरीर की रक्षा करो, क्योंकि पृथ्वी के चक्रवर्ती राज्य और स्वर्ग के राज्य में केवल पृथ्वी को छूने का भेद है, अन्यथा दोनों एक समान हैं ।

          केसरी इतना कहकर चुप हो गया तो प्रतिध्वनि द्वारा मानों गुफा ने भी उसके कथन का अनुमोदन किया। राजा उसका उत्तर देने लगा तो उसने देखा कि मुनि की गौ बहुत कातर आंखों से उसकी ओर एकटक निहार रही है । राजा ने कहा-क्षत्रिय उसे कहते हैं जो प्रहार से निर्बल की रक्षा करे। मैं तुमसे नन्दिनी की रक्षा न कर सका, ऐसी दशा में अपने कर्तव्य से हीन और निन्दा से संकलित प्राणों को बचाकर क्या करूंगा? तुम कहते हो मैं बहुत-सी अन्य धेनुओं की भेंट देकर गुरु को संतुष्ट कर दें। यह नन्दिनी गौ सुरभि के बराबर महत्त्व रखती है।

         असंख्य गौएं भी इसकी बराबरी नहीं कर सकतीं। यदि तुम्हें भगवान् रुद्र का सहारा न होता, तो तुम इस प्रहार न कर रसकते। सो है मृगेन्द्र! मैं अपने शरीर को मूल्यरूप में देकर तुमसे इसे खरीदना चाहता हूं। यह न्याय की बात है, क्योंकि इससे तुम्हारी भूख भी मिट जाएगी, और मेरे गुरु का यज्ञ भी खंडित न होगा। तुम्हीं सोचकर देखो, भगवान की आज्ञा को मानकर तुम प्राणपण से इस देवदारू के पेड़ की रक्षा कर रहे हो। क्या इसी प्रकार गुरु की यज्ञधेनु की रक्षा में जीवन की बाजी लगा देना मेरा कर्तव्य नहीं है? मेरे जैसे व्यक्ति धर्म के सामने अपने हाड़-चाम के पिण्ड का कोई दाम नहीं समझते। यदि तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति दया का भाव उत्पन्न हुआ है, तो उसका प्रभाव मेरे यशसरूपी शरीर की ओर प्रवाहित करो। सज्जनों की मैत्री का जन्म आपस की बातचीत से ही हो जाता है। वह हम दोनों में हो चुका-इस कारण हे भगवान् शंकर के सेवक, मेरी पहली इच्छा का तिरस्कार न करो। मुझे कलेवा बनाकर ऋषि की धेनु को छोड़ दो। सिंह ने उत्तर में कहा-बहुत अच्छा! उस समय राजा ने अनुभव किया कि उसके हाथों पर जो प्रतिबन्ध लगा था, वह हट गया। राजा ने अपने हथियार रख दिए, और मांस के पिण्ड के समान अपने निश्चेष्ट शरीर को बलिदान के लिए उपस्थित कर दिया।

             प्रजाओं के पिता के समान सम्राट् दिलीप सिर नीचा करके सिंह के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे। राजा ने आश्चर्य से देखा कि स्वर्ग के देवता उस पर पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। इतने में शब्द सुनाई दिया-बेटा उठो! राजा ने आंखें उठाकर देखा तो वहां शेर का कोई चिह भी नहीं था। हां, मां के समान दूध बरसाती हुई नन्दिनी सामने खड़ी थी। राजा को आश्चर्य में डूबा देखकर नन्दिनी ने कहा --

           हे राजन् मैंने अपनी माया के बल से तेरी परीक्षा ली है, अन्यथा, ऋषि के प्रभाव से मुझपर तो यमराज भी आक्रमण नहीं कर सकता साधारण हिंसक पशुओं की तो बिसात ही क्या है! तूने अपने गुरु के प्रति भक्ति और मेरे प्रति दया के भाव से मुझे प्रसन्न कर लिया है। हे पुत्र, तू यथेष्ट वर मांग! मैं केवल दूध नहीं देती, कामनाओं की पूर्ति भी करती हूं ।

         नन्दिनी के इन वचनों से आश्वासन पाकर राजा ने शक्ति द्वारा वीरता का यश फैलाने वाले अपने हाथों को जोड़कर नन्दिनी को प्रणाम किया, और वर मांगा कि सुदक्षिणा की कोख से वंश का संस्थापक पुत्र - रत्न उत्पन्न हो। ऐसा ही होगा-यह आशीर्वाद देकर नन्दिनी ने राजा को आदेश दिया कि पत्ते के दोनों में लेकर मेरा दूध पियो; तुम्हारी कामना पूरी होगी। राजा ने निवेदन किया-मां, जैसे मैं पृथ्वी की रक्षा करके केवल उसका छठा भाग कर के रूप में लेता हूं, उसी प्रकार बछड़े और यज्ञ से बचा हुआ तुम्हारा दूध में ऋषि की अनुमति से ग्रहण करूंगा।

          राजा के उत्तर से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर नन्दिनी हिमालय की गुफा से निकल आश्रम की ओर रवाना हुई। आश्रम में पहुंचकर राजा ने गुरु वसिष्ठ को शुभ समाचार सुनाया। रानी सुदक्षिणा ने राजा के प्रसन्न मुख को देखकर ही सब कुछ समझ लिया था। राजा ने शुभ समाचार सुनाया, वह तो पुनरुक्तिमात्र ही हुआ । सायंकाल होने पर यज्ञ और बछड़े से बचे हुए नन्दिनी के दूध को, गुरु की आज्ञा पाकर राजा ने इस प्रकार पिया, मानो शुद्ध यश का पान कर रहा हो।

         दूसरे दिन प्रातः काल ऋषि ने राजदम्पती को आशीर्वाद देकर विधिपूर्वक विदाई दी। दोनों ने पहले यज्ञाग्नि की, फिर गुरु अरुन्धती सहित गुरु वसिष्ठ की और अन्त में बछड़े-समेत नन्दिनी की प्रदक्षिणा की। अपने पूर्ण हुए मनोरथ के समान विघ्नरहित और सुखकारी रथ से वे दोनों घर की ओर चले । जैसे अमावस्या के अनन्तर अन्तरिक्ष में फिर से दिखाई देने वाले औषधियों के स्वामी चन्द्र का दर्शन किया जाता है, चिरकाल के पश्चात् प्रजाओं की भलाई के लिए की गई तपस्या से कृशकाय दिलीप (के रूप) का प्रजाजनों ने उसी प्रकार प्यासे नेत्रों से पान किया, और झंडियों से राजधानी को सजाकर अभिनन्दन किया।


महाराज सिंहासनारूढ़ होकर समुद्र-मेखला पृथ्वी का शासन करने लगे। कुछ समय के पश्चात् जैसे अत्रि मुनि के नयनों से उत्पन्न चन्द्रमा को आकाश ने धारण किया था, जैसे अग्नि द्वारा फेंके हुए स्कन्दरूपी तेज को गंगा ने संभाल लिया था, वैसे ही रानी सुदक्षिणा ने कुल के लिए उत्कृष्ट गर्भ को धारण किया।











Sanskrit Proverbs /English Meaning /Part-2

 

  Sanskrit Proverbs 

  English Meaning 


               Knowledge


आत्मानं विद्धि । 

Know thyself.


ज्ञानं हि बलम्।

Knowledge is power.


आ जागृविर्-विप्रः । 

He who is awake is wise.


न ज्ञानात् परमं चक्षुः।

Knowledge is the perfect eye.


अल्पविद्या महागुर्वी।

A little learning is big-headedness.


न विवेकं विना ज्ञानम्।

Conscience does not mature without knowledge.


अल्पविद्या भयंकरी।

A little learning is a dangerous thing.


किं मरणम्? मूर्खत्वम् ।

What is death really? It is folly.


सत्यं ज्ञानम् अनन्तं ब्रह्म । 

God is Truth, Wisdom, Absolute.


ज्ञानं भारः क्रियां विना।

Knowledge, without its proper application, is but a burden.


बुद्धिर्यस्य बलं तस्य। 

He who is intelligent is dominant.


न हि सर्वः सर्वं जानाति।

Everybody does not know everything.


मतिरेव बलाद् गरीयसी।

Knowledge is more powerful than physical strength.


शुद्धा हि बुद्धिः किल कामधेनुः।

Pure and refined intellect of man is the wish-fulfilling cow.


अन्नदानात् परं दानं विद्यादानम्।

Knowledge-giving is better than alms-giving.


किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या। 

Like wish-fulfilling creeper learing does fulfil what not!


विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा ।

Thirst for knowledge gives neither rest nor contentment.


न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

In this world, nothing more sacred than 

enlightenment does remain.


ज्ञानेन हीनाः पशुभि: समाना: । 

Men without brain are not different from beasts.


द्वे विद्ये वेदितव्ये परा-अपरा च।

Two kinds of knowledge are to be ascerteaind - 

divine and mundane.


विद्याकामोऽथ वाल्मीकिं व्यासं वाप्यथ पूजयेत् ।

Do you like to achieve scholarship and culture? 

You have to pay tribute to Valmiki or Vyasa either.


कुर्वन्ति बोधसलिलेन शुचित्वमत्र ।

Noble souls solemnize themselves with the water of wisdom.


व्यासगिरां निर्यासं सारं विश्वस्य भारतं वन्दे।

I do honour the Bharata that is Mahabharata, 

which is Vyása's magnum opus - 

the central essence of the universe.


विद्या भोगकरी यश:-सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः। 

Education is for entertainment, for esteem, for pleasure. 

Education is the preceptor of all preceptors.


न च विद्यासमो बन्धुः/ न च व्याधिसमो रिपुः ।

No bosom friend like knowledge, 

no wicked foe like disease.


तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

What is unknown is to be known by submission, 

by inquiring and by diligence.


अविद्यया मृत्युं तीत्वी / विद्यया अमृतमश्नुते। 

By knowledge man evades death and 

by wisdom secures immortality.


आन्वीक्षिकी त्रयी वाती दण्डनीतिश्च इति विद्या।

Philosophy and logic, the scriptures, 

the science of economics i.e. agriculture, 

livestock and trade, and the science of polity 

are the branches of learning.


दण्डनीतिर् एका विद्या।

There is only one science that is the science of state craft.


मनसा वा इयं वाक् धृता / मनो वा इदं पुरस्ताद् वाचः। 

Language is the expression of mind. Mind acts first, 

words follow behind.


श्रद्धावान् लभते ज्ञानं / तत्पर: संयतेन्दियः। 

He who is full of faith and devotion and 

sefl-controlled obtains sacred knowledge.


प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता।

Genius is defined as super intellect that creates 

more and more things afresh and anew.


अज्ञता कस्य नामेह / नोपहासाय जायते।

Whom does not make idiocy a laughing stock?


विद्यया सह मर्तव्यं / कुशिष्याय न दापयेत् । 

Better to die keeping knowledge undelivered 

Than to deliver it to a disciple sub-standard.


वाग् वै मनसो हसीयसी। अपरिमिततरम् एव मनः,

परिमिततरम् एव हि वाक् ।

Language is inferior to mind. Mind is unlimited, 

language is limited.


स्वदेशे पूज्यते राजा / स्वगृहे पूज्यते मूर्ख: / विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।। 

A king is honoured in his own land, 

while a fool in his dwelling,

But all over the world a man of learning.


अपूर्व: कोऽपि भाण्डारो / दृश्यते तव भारति ।

व्यायतो वृद्धिमायाति / क्षयमायाति च सञ्चयात् ।।

O goddess of Learning, your fund, as it is seen, 

is strange indeed! It increases through expenditure, 

while decreases through accumulation.


आत्मबुद्धिः सुखायैव / गुरुबुद्धिर्विशेषतः। 

परबुद्धिर्विनाशाय / स्त्रीबुद्धि: प्रलयंकरी । 

One's own intelligence brings pleasure, 

Intelligence of the teacher gives delight super, 

Intelligence of the rival causes downfall, 

Intelligence of women brings ruin fatal.


अनन्तपारं किलं शब्दशास्त्रं / स्वल्पं तथायुर् बहवश्च विघ्रा:। 

सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु / हंसैर् यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ।। 

Verbal sciences have no end at all, Life is short, 

impediments innumerable; Reject non-sense 

and take essence there As swans 

extract milk mixed with water.


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              Poetry and Literature


का विद्या कविता विना?

Without poetry intellect is impossible.


नाटकान्तं कवित्वम्।

Drama is the finest specimen of poetic art.


काव्येषु नाटकं रम्यम्।

Of all varieties of poetic creation 

drama is the most entertaining.


निरंकुशा: हि कवयः।

Poets are beyond all superficial limitations by intellect.


काव्यालापान् च वर्जयेत्।

Try to avoid the culture of literature.


लोकवृत्तानुकरणं नाट्यम्।

Drama is the imitation of form and action of 

all the worldly creation.


मतिदर्पणे कवीनां विश्वं प्रतिफलति ।

It is the mirror of intellect of the poets 

Where the boundless universe truly reflects.


पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति । 

Behold the universe-poetry of the poet master, 

It does neither perish nor wither.


नाट्यवेदं ततश्चक्रे पंचमं सार्ववर्णिकम्।

The Creator created drama as the fifth Veda for the 

entertainment of all classes of people of the society.


अन्नचिन्ता-चमत्कारकातरे कविता कुतः।

Is poetry worthy of any merit to one, though well-read, 

Who is troubled by the thoughts of eaming daily bread?


नानृषि: कविरित्युक्तः/ ऋषिश्च किल दर्शनात्।

A poet is never a non-seer (that is an ordinary 

onlooker); he is a seer because of his poetic vision.


साहित्यरसमाधुर्यं शङ्करो वेत्ति वा न वा।

Even Samkara, the Almighty, may or may not 

know the taste of poetry.


काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।

सद्य: परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे।।

Poetry brings fame, wealth and worldly knowledge, 

Removes misfortunes and does instantly pledge 

The best of delight as well as good advice 

That's befitting to a loving spouse.


अपारे काव्यसंसारे कविरेक: प्रजापति: ।

यथा वै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते।।

In this universe of poetic creation, the poet is the 

supreme creator since he can create anything and 

everything after his own image.


काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।

व्यसनेन तु मूर्खाणां / निद्रया कलहेन वा।।

For the enlightened time passes through the delights 

of poetry, arts and science, while for the silly-billy 

through indulgence in evil-doing, sleeping and 

quarrelling.


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Sanskrit Proverbs /English Meaning /Part-1

 

       SANSKRIT PROVERBS 

And sayings 

English meaning 

                                 Aphorism


पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि / जलमत्रं सुभाषितम् । 

In this world, three treasures are there

Wise words, water, bread and butter.


ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम् ।

Meaningful utterance, even from the minor, 

Should be taken with value and due honour.


अनवसरे च यदुक्तं सुभाषितं तच्च भवति हासाय।

Any maxim untimely uttered gives 

no wisdom but laughter.


अर्थभारवती वाणी / भजते कामपि श्रियम् । 

Meaningful expression pregnant with 

diction reveals unique beauty.


रोहणं सूक्तिरद्रानां / वन्दे वृन्दं विपश्चिताम् । 

Like a treasure witty utterings of the wise, 

I do admire and eulogise.


प्रबोधाय विवेकाय / हिताय प्रशमाय च । 

सम्यक् तत्त्वोपदेशाय / सतां सूक्ति: प्रवर्तते।।

 For knowledge, for enlightenment, 

For welfare, for mental enjoyment, 

And for philosophical counsel --

Thoughtful words of the wise act well.


भाषासु मुख्या मधुरा / दिव्या गीवाण-भारती । 

तस्माद् हि काव्यं मधुरं / तस्मादपि सुभाषितम्।। 

Of all languages Sanskrit is paramount and sweet, 

it is divine, exquisitely fine and very lucid. 

Its poetry is more sweet and delightful, 

While the witty sayings are the sweetest of all.


बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः / प्रभव: स्मयदूषिताः। 

अबोधोपहताश्चान्ये / जीर्ण छड्के सुभाषितम् ।

Intelligent people are jealous, the rich and the powerful 

are arrogant and the rest are foolish and dull-headed; 

therefore, utterings of the wise are useless indeed.


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                                Prayer


पावका न: सरस्वती।

Let our learning be all-sanctifying.


प्रतार्यायुः प्रतरं नवीयः।

Let me grow up anew day by day. 

Let me become nobler day by day.


जीवा ज्योतिर् अशीमहि।

Let us realise the divine light in our mortal existence.


वाचं वदत भद्रया।

Speak what is pleasent and polite.


मृत्योः मुक्षीय, मा अमृतात्।

From death protect me, not from immortality.


अभयं नक्तंम्, अभयं दिवा नः।

May we be fearless throughout night and day.


अपाम सोमम् अमृता: अभूम।

Let us be immortal by drinking soma, the elixir.


सायं प्रातः सौमनसः वः अस्तु।

Let there be grace and noble-mindedness 

for you all night and day.


तन् में मनः शिवसंकल्पम्-अस्तु । 

Let my mind be engrossed in noble thoughts.


सा मा सत्योक्तिः परिपातु विश्वत:।

Let the truth and uprightness in my 

utterance protect me all over.


आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः।

Let noble thoughts come to us from all directions


कुर्वत्रेवेह कर्माणि जिजीविषेत्-शतं समाः । 

Let all mortals aspire to live hundred years 

While successfully discharging duties.


यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुद: प्रमुद आसते। तत्र माममृतं कृधि। 

Where pleasure, happiness, joy and delight are, 

O, make me deathless and immortal there.


असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर् गमय, मृत्योर् मा अमृतं गमय।

From untruth lead me unto truth, from darkness 

unto light, from death unto immortality.


अज्येष्ठासः अकनिष्ठासः एते सं भ्रातरः वावृधः सौभगाय। 

Let mortals get together as brethren, neither 

superior nor inferior, and prosper with good luck.


जीवन्तु मे शत्रुगणा सदैव।

येषां प्रसादात् सुविचक्षणोऽहम्।

May all my enemies live long and carry on

For whose favour far-sighted I would remain.


सहसा विदधीत न क्रियाम् 

अविवेकः परमापदां पदम्।

Do not do anything all on a sudden 

Since the fool are subject to heavy burden.


पश्येम शरद: शतम् / जीवेम शरद: शतम्।

भवेम शरदः शतम् / बुध्येम शरद: शतम्।। 

May we live hundred years, 

May we learn for hundred years,

May we observe hundred years,

May we develop for hundred years,


तेजोऽसि, तेजो मयि धेहि। वीर्यमसि, वीर्य मयि धेहि । 

बलमसि, बलं मयि धेहि। ओजोऽसि, ओजो मयि धेहि।।

Thou art Glory, make me glorious, 

Thou art Wisdom, make me wise, 

Thou art Might, make me mighty, 

Thou art Brilliance, make me brilliant.


सर्वस्-तरतु दुर्गाणि / सर्वो भद्राणि पश्यतु । 

सर्वः कामानवाप्नोतु / सर्वः सर्वत्र नन्दतु ।। 

Let all mortals overcome all obstacle,

Let all mortals foresee all good and beautiful. 

Let all mortals get their desires fulfilled, 

Let all be everywhere delighted and thrilled.


हिरण्मयेन पात्रेण / सत्यस्यापिहितं मुखम्।

तत्-त्वं पूषत्रपावृणु / सत्यधर्माय दृष्टये।।

By the golden cover remains concealed the Ultimate True, 

Uncover it, O God, for perfect view of sublime virtue.


इतरतापशतानि यथेच्छया / वितर तानि सहे चतुरानन । 

अरसिकेषु रसस्य निवेदनम् / शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख।।

All other woes send unto me as you please, 

Somehow, O God, I can endure all these. 

Aesthetic delight to the half-wit to render 

On my head, please put it never, never, never.


उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्-तत कवयो वदन्ति। 

Arise, awake, get the best teachers and learn from them. 

Sharp as the edge of a razor, difficult to cross and uphill 

is that path - so speake the wise.


द्यौः शान्तिः, अन्तरिक्षं शान्तिः, पृथिवी शान्तिः, 

आपः शान्तिः, ओषधयः शान्तिः, वनस्पतयः शान्तिः, 

विश्वे देवाः शान्तिः, ब्रह्म शान्तिः, शान्तिः एव शान्तिः, 

सा मा शान्तिर्-एधि।

Let there be peace unto heaven, 

unto atmosphere, unto earth,

Peace be unto waters, plants and creepers and trees, 

Peace be unto all spirits, unto God.

Let this peace be universal harmony, 

Let such peace come unto me.


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Sanskrit Names of Medicinal Plants (herbs)

      Sanskrit Names of  Medicinal Plants (herbs) English Name         Sanskrit Name 1. Aconite     Vatsanaabha 2. Adlay / Jobs tears       ...