रघुवंश (संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' का हिन्दी रूपान्तर) महाकवि कालिदास /3
विश्वजित यज्ञ
जिस समय 'विश्वजित' यज्ञ में सर्वस्व दान करने के कारण सम्राट् रघु का खज़ाना बिल्कुल खाली हो चुका था, उस समय वरतन्तु आचार्य का शिष्य कौत्स अपनी शिक्षा समाप्त करके गुरुदक्षिणा की खोज में अयोध्या पहुंचा। सोने के सब बर्तन दिए जा चुके थे, अतः रघु ने मिट्टी के बर्तन में अर्घ्य प्रस्तुत किया। अर्ध्य-पाद्य आदि से उस तपस्वी का सत्कार करके मानियों के प्रमुख सम्राट् रघु ने उसे आसन पर बिठाया और हाथ जोड़कर प्रश्न किया
हे कुशाग्रबुद्धि मुनिवर, जैसे सारा संसार सूर्य से जीवन प्राप्त करता है, वैसे ही जिस मन्त्रवक्ताओं के अग्रणी ऋषिवर से तुमने सब विद्याएं प्राप्त की है, वे कुशल से तो हैं? देवताओं के अधिपति को हिला देनेवाली महर्षि की त्रिविध तपस्या के मार्ग में कोई रुकावटें तो नहीं आतीं?
शरीर, वाणी और कर्म द्वारा देवताओं के राजा के आसन को हिला देनेवाला जो त्रिविद तप महर्षि ने संचित किया है, उसमें कहीं विघ्नबाधाएं तो उपस्थित नहीं होतीं?
शीतल छाया द्वारा थकान उतारनेवाले उन आश्रम के वृक्षों को, जिन्हें आश्रमवासियों ने आलवाल बनाकर तथा सब उपायों से सन्तान की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया है, वायु आदि के उपद्रवों से हानि तो नहीं पहुंचती?
हरिणियों की जिस सन्तति को मुनि लोग अपने बच्चों से भी अधिक प्रेम करते हैं, जिनका जन्म मुनियों की गोद से ही होता है, जो यज्ञादि के निमित्त से भी अलग नहीं किये जाते, कुशल से तो हैं?
जिन पवित्र जलों से आप लोग दैनिक स्नानादि करते हैं? जिनकी अंजलियों से पितरों का तर्पण होता है, और जिनकी रेतीली तटभूमि अन्न के षष्ठभाग पर लगे हुए राजकर के चिह्नों से अंकित है, वे जल उपद्रव रहित तो हैं?
जिनसे आप अपना जीवन-निर्वाह, और समय-समय पर आनेवाले अतिथियों का पूजन करते हैं, उन नीवार श्यामाक आदि अन्नों को भुस की खोज में आने वाले गौ-भैंस आदि पालतू पशु तो नष्ट नहीं करते?
महर्षि ने विद्या की समाप्ति पर आपको गुरुकुल से प्रसन्नतापूर्वक घर जाने की अनुमति तो दे दी? क्योंकि अब वह समय आ गया है, जब आप अन्यों का उपकार करने की योग्यता के कारण ज्येष्ठ आश्रम-गृहस्थाश्रम में प्रवेश करें ।
केवल आपके आने से ही मेरा मन सन्तुष्ट नहीं हुआ, मैं उत्सुक हूं कि आपके किसी आदेश का पालन भी करूं। आपने मुझपर अनुग्रह किया है कि अपने गुरु की आज्ञा से अथवा स्वयं जंगल से पधारकर मुझे कृतार्थ होने का अवसर दिया है।
वरतन्तु मुनि के शिष्य कौत्स ने अर्घ्य के पात्र को देखकर ही अनुमान लगा लिया था कि रघु सर्वस्व दान कर चुका है। राजा की उदार वाणी सुनकर भी कौत्स की आशा हरी नहीं हुई और वह बोला -
हे राजन्, आश्रम में सब प्रकार से कुशल-मंगल है शासन की बागडोर आपके हाथों में रहते प्रजा को कष्ट हो ही कैसे सकता है? जब सूर्य दमक रहा हो तब प्राणियों की आंखों को अंधेरा कैसे ढक सकता है?
हे राजन्, पूज्यों के प्रति भक्ति की भावना रखना तुम्हारे कुल की प्रथा है। अपनी विशालहृदयता के कारण तुमने अपने पूर्व-पुरुषों को भी मात दे दी है। मुझे इतना ही दुःख है कि मैं समय बीत जाने पर अपनी अभ्यर्थना लेकर यहां पहुंचा हूं।
हे नरेन्द्र, वनवासियों द्वारा अन्न निकाल लेने पर जैसे नीवार का खोखला स्तम्भ (सूखा पौधा) शोभायमान होता है, सत्पात्रों को सर्वस्व दान देकर ही तुम वैसे शोभायमान हो रहे हो ।
चक्रवर्ती साम्राज्य प्राप्त करके आज दान के कारण तुम्हारी यह धनहीनता शोभाजनक ही है। देवताओं द्वारा अमृत पिए जाने पर चन्द्रमा की क्षीणता उसकी वृद्धि से कहीं अधिक प्रशंसनीय होती है।
सो राजन्, मैं किसी अन्य स्थान से गुरुदक्षिणा प्राप्त करने का यत्न करूंगा । मुझे तो इस समय इसके अतिरिक्त कोई कार्य नहीं है। भगवान तुम्हारा कल्याण करें। बरसकर खाली हुए बादल से तो चातक भी पानी नहीं मांगता।
यह कहकर जब कौत्स विदा होने लगा तो राजा ने उसे रोककर पूछा-हे विद्वान, आप यह तो बताइए कि गुरु की सेवा में आपको क्या वस्तु कितनी राशि में भेंट करनी है?
विश्वजित् यज्ञ को सफलतापूर्वक सफल करके भी अभिमान से शून्य, वर्णाश्रमों की रक्षा करनेवाले उस क्षत्रपति के प्रश्न को सुनकर वह स्नातक रुक गया और बोला --
विद्याध्ययन समाप्त करके मैंने महर्षि से निवेदन किया था कि मुझे गुरुदक्षिणा भेंट करने की आज्ञा दी जाए। गुरु ने मेरी चिरकाल तक की हुई भक्तिपूर्ण सेवा को ही पर्याप्त समझा । फिर भी मैं गुरुदक्षिणा का आग्रह करता गया। इससे असन्तुष्ट होकर महर्षि ने कहा कि यदि तेरा ऐसा ही आग्रह है तो ग्रहण की हुई चौदह विद्याओं के बदले में चौदह करोड़ मुद्राएं गुरुदक्षिणा के रूप में उपस्थित कर। हे राजन्, पूजा के मृण्मय पात्रों से मैंने जान लिया है कि तुम्हारा केवल 'प्रभु' नाम ही शेष है, और मेरी मांग बहुत बड़ी है, इस कारण मैं तुमसे आग्रह करने का साहस नहीं कर सकता।
वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण की इस प्रकार की बात सुनकर तेजस्वी और विद्वान् सम्राट ने निवेदन किया --
भगवन्, विद्या रूपी समुद्र को पार करके एक स्नातक गुरु दक्षिणा की खोज में रघु के पास आया और निराश होकर किसी दूसरे दानी के पास चला गया, यह अपकीर्ति मेरे लिए एक नई वस्तु होगी, जो मुझसे सहन नहीं हो सकेगी। अतः आप दो-तीन दिन तक मेरे यज्ञगृह में चतुर्थ अग्नि की भांति आदरपूर्वक निवास करने का अनुग्रह करें। इस बीच में मैं आपकी अभीष्ट धनराशि जुटाने का यत्न करता हूँ।
रघु के वचन को अटल प्रतिज्ञा के समान मानकर कौत्स प्रसन्नतापूर्वक रुक गया। इधर यह सोचकर कि पृथ्वी का सार खींचकर तो मैं दान कर चुका हूं, राजा ने कैलास के स्वामी कुबेर से अभीष्ट धनराशि लेने का संकल्प किया। जैसे वायु की सहायता प्राप्त होने पर अग्नि की गति अमोघ हो जाती है, उसी प्रकार वसिष्ठ मुनि के वरदान से रघु के रथ की गति न समुद्र में रुकती थी, न आकाश में मन्द होती थी और न पर्वतों पर ढीली पड़ती थी। उस रात रघु शस्त्रों से सुसज्जित रथ में ही सोया, मानो वह प्रातःकाल अपने किसी साधारण सामन्त को जीतने के लिए प्रयास करनेवाला हो। जब वह प्रातःकाल सोकर उठा तो कोषगृह के रखवालों ने सूचना दी कि आज रात कोषगृह में आकाश से सोने की वर्षा हो गई है। वह धनराशि इतनी थी कि मानो बिजली की चोट खाकर सुमेरु पर्वत की चट्टान टूट पड़ी हो। रघु ने वह सम्पूर्ण धन कौत्स की सेवा में मेंट कर दिया। अयोध्या के निवासी यह दृश्य देखकर चकित और कृतकृत्य हो रहे थे कि याचक गुरुदक्षिणा की मात्रा से अधिक लेने से इन्कार करता था, और दाता कुबेर से प्राप्त समस्त धनराशि देने पर तुला हुआ था।
राजा ने वह धनराशि सैकड़ों ऊंटों और खच्चरों पर लादकर कौत्स के सुपुर्द करते हुए झुककर प्रणाम किया। सन्तुष्ट होकर विद्वान् ब्राह्मण ने राजा को आशीर्वाद दिया-राजन्, तुम जैसे प्रजा का पालन करने वाले शासक के लिए पृथ्वी कामधेनु हो, यह तो स्वाभाविक ही है। परन्तु तुम्हारा प्रभाव अचिन्तनीय है, जिसने आकाश को भी दुह लिया। संसार की सब विभूतियां तुम्हें प्राप्त हैं, अन्य जो भी शुभकामना की जाएगी वह पुनरुक्तिमात्र होगी। इस कारण मेरा इतना ही आशीर्वाद है कि जैसे तुम्हारे योग्य पिता ने तुम्हें प्राप्त किया था वैसे ही तुम भी अपने अनुरूप पुत्र प्राप्त करो।
इस प्रकार आशीर्वाद देकर गुरुदक्षिणा के साथ ब्राह्मण गुरु के पास चला गया। जैसे संसार सूर्य से प्रकाश प्राप्त करता है, वैसे राजा ने भी भगवानू की दया से पुत्ररत्न प्राप्त किया।
महारानी ने ब्राह्ममुहूर्त में स्कन्द के समान तेजस्वी कुमार को प्राप्त किया। इस कारण सम्राट ने उसका नाम ब्रह्मा के नाम पर 'अज' रखा।
अज में वही तेजस्वी रूप, वही बल और वही स्वाभाविक उदार भाव था । कुमार अपने पिता से उसी प्रकार अभिन्न था, जैसे दीये से जला हुआ दीया । जब गुरुओं से विधिपूर्वक प्राप्त की हुई शिक्षा और युवावस्था के प्रभाव से अज पूर्णरूप से सुन्दर और गम्भीर हो उठा, तब यद्यपि राज्यश्री उसके गले में हार पहनाने को उत्सुक थी, तो भी लज्जाशील कन्या की तरह पिता की अनुमति की प्रतीक्षा कर रही थी। इस समय विदर्भ के राजा भोज के विद्वान् दूत ने रघु के पास आकर निवेदन किया कि राजकुमार अज को पुत्री इन्दुमति के स्वयंवर में भाग लेने को भेजिए। सम्बन्ध उत्तम है और कुमार की अवस्था विवाह के योग्य हो गई है, यह विचारकर राजा ने अज को सेनाओं के साथ धन-धान्य से भरी हुई विदर्भ देश की राजधानी की ओर भेज दिया। मार्ग में युवराज ने जहां पड़ाव किए वहां राजाओं के योग्य बहुमूल्य तम्बुओं के महल बनाए गए थे, जिनमें नगरों से लाकर उत्तमोत्तम सामग्री इकट्ठी की गई थी, और जिन्हें वाटिका और विहारस्थानों से सुखकारी बनाया गया था। उसका एक पड़ाव नर्मदा नदी के तीर पर हुआ, जहां मार्ग की धूल से सनी हुई सेनाओं को नदी जल से आर्द्र, और नक्तमाल के स्पर्श से ठंडे पवन से शान्ति प्राप्त हुई।
जब नर्मदा के तट पर अज का डेरा पड़ा हुआ था, तब एक जंगली हाथी-जिसके गण्डस्थल जल से धुल जाने के कारण निर्मल हो गए थे, परन्तु पानी के ऊपर मंडराते हुए भौंरों को देखकर यह सूचित होता था कि पानी में जाने से पूर्व उसके मस्तक से मद बह रहा था-नदी के जल से निकलता दिखाई दिया। उसके मर्द की तीव्र बास से परास्त हुए सेना के हाथी, हाथीवानों के हाथ से निकलने लगे। उसके भय से सेना के वाहन रस्सी तुड़ाकर भागने लगे; जिससे रथ उलटकर टूटने लगे और सिपाही लोग स्त्रियों की रक्षा में व्यस्त हो गए। इस लोकप्रधा का आदर करते हुए कि जंगली हाथी राजा के लिए अवध्य है, अज ने केवल उसे रोकने के लिए धनुष की प्रत्यंचा हल्का सा खींचकर उसके कुम्भस्थल पर तीर मारा आश्चर्य से चकित सेनाओं ने देखा कि तीर से विद्ध होकर उस हाथी का रूप बदल गया, और वह चमचमाते तेज के मण्डल से घिरे हुए आकाशवासी गन्धर्व के रूप में दिखलाई देने लगा उसने पहले राजकुमार पर कल्पद्रुप के फूलों की वर्षा की, और फिर निवेदन किया
हे राजकुमार, मैं प्रियदर्शन नाम के गन्धर्वराज का पुत्र प्रियंवद हूं। मेरे दुरभिमान से रुष्ट होकर मतंग मुनि ने मुझे शाप दे दिया, जिससे मुझे हाथी का रूप धारण करना पड़ा। शाप मिलने पर मैंने अनुनय-विनय किया तो वे शान्त हो गए। पानी चाहे आग और धूप के संयोग से गर्म हो जाए, परन्तु वह स्वभाव 1. से तो शीतल ही है। शान्त होकर तपस्वी ने शाप को कम करते हुए कहा कि इक्ष्वाकुवंश का राजकुमार अज जब बाण से तेरे मस्तक को छेद देगा, तब तुझे अपना शरीर वापस मिल जाएगा। सो तुमने मुझे शाप से छुड़ाकर मुझपर बड़ा उपकार किया। इसके बदले में यदि मैं प्रत्युपकार न करूं, तो मेरा निज रूप में आना व्यर्थ ही होगा। हे मित्र, मेरे पास सम्मोहन नाम का गन्धर्व अस्त्र है, जिसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि शत्रु की हिंसा नहीं करनी पड़ती और जीत हाथ में आ जाती है। यह अस्त्र मैं तुम्हें देता हूं। इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है। तुमने तीर का प्रहार करते हुए मुझपर मुहूर्त-भर जो दया का भाव प्रदर्शित किया, उसने मेरे हृदय में अपनापन पैदा कर दिया है। कृपया इस भेंट को लेने से इन्कार न करना।
राजकुमार ने प्रियंवद की बात स्वीकार कर ली और पूर्वाभिमुख हो नर्मदा के जल का आचमन करके सम्मोहनास्त्र ग्रहण किया। इस प्रकार दैव ने उन दोनों को मार्ग में मिलाकर मित्र बना दिया। अस्त्र-ग्रहण के पश्चात् वह चैत्ररथ नाम के गन्धर्वों के निवासस्थान की ओर चला गया, और दूसरे ने उत्तम शासन के कारण सुखी और समृद्ध विदर्भ देश की दिशा की ओर प्रस्थान किया।
जब अज विदर्भ की राजधानी के पास पहुंचा, तो जैसे लहरों की भुजाओं को बढ़ाकर समुद्र चन्द्रमा का स्वागत करता है, वैसे ही विदर्भराज ने प्रसन्नहृदय से उसका स्वागत किया। विदर्भराज भोज ने नगरप्रवेश के समय ऐसी नम्रता से व्यवहार किया, जिससे सब अभ्यागत लोगों ने अज को गृहस्वामी और भोज को अतिथि समझा।
वहां पहुंचकर अधिकारी पुरुष राजकुमार को जिस नवनिर्मित और सुन्दर राजमहल में ठहराने के लिए ले गए, उसके पूर्व द्वार पर जल से भरे हुए घड़े स्थापित किए गए थे। उस भवन में अज ऐसा शोभायमान हुआ मानो साक्षात् कामदेव युवावस्था में निवास कर रहा हो ।
रात्रि के समय राजकुमार को बहुत मीठी नींद आई । उषाकाल में वैतालिक लोगों ने मधुर और प्रगल्भ स्तुतियों द्वारा उसका उद्बोधन किया। उन्होंने कहा -रात समाप्त हो गई। हे बुद्धिमानों के शिरोमणि! अब शय्या को छोड़िए। इस पृथ्वी का बोझ विधाता ने दो कन्धों पर रखा है। एक कंधा तुम्हारे सदा जागरूक पिता का है, और दूसरा तुम्हारा । देखो, अभी भगवान भास्कर आकाश में अवतीर्ण भी नहीं हुए कि उनके सारथि अरुण ने अन्धकार को छिन्न-भिन्न कर दिया। ठीक भी है, हे वीर, जब तुम मैदान में उतर आओगे, तो तुम्हारे गुरु को हथियार उठाने की क्या आवश्यकता है! राजकुमार, कल सायंकाल तैयार किए गए फूलों के हार बिखर रहे हैं, दीपक की ज्योति मन्द पड़ गई है, और पिंजरे में बन्द तुम्हारा सुग्गा हमारे प्रबोध वाक्यों को मीठे गले से दोहरा रहा है । अब उठो।
इस प्रकार स्तुतिवाक्यों से अज की नींद टूट गई और वह बिस्तर छोड़कर उठ बैठा। उठकर शास्त्रोक्त रीति से उसने नित्यकर्मों का अनुष्ठान किया। कुशल परिचारकों ने उसे सभा के योग्य वेशभूषा से परिष्कृत किया, जिसके पश्चात् वह नियत समय पर स्वयंवर के मण्डप की ओर प्रस्थित हुआ।
इन्दुमती का स्वयंवर
स्वयंवर के मण्डप में पहुंचकर राजकुमार ने सुन्दर वेशवाले क्षत्रियां को विमान पर आरूढ़ देवताओं के समान शोभायमान देखा । राजाओं ने जब कामदेव के सदृश सुन्दर अज को देखा तो उनके मन में इन्दुमती की ओर से निराशा उत्पन्न हो गई। जैसे शेर का बच्चा शिलाओं पर चरण रखता हुआ पर्वत की चोटी पर चढ़ जाता है, वैसे ही सम्राट् रघु का राजकुमार भी शानदार सीढ़ियों से होकर राजा भोज द्वारा निर्दिष्ट सिंहासन पर विराजमान हो गया। सिंहासन रत्नों से जगमग हो रहा था और उसपर बहुमूल्य रंग-बिरंगे कालीन बिछे हुए थे। उसपर आसीन कुमार ऐसे शोभायमान हो रहा था, जैसे मोर की पीठ पर बैठा हुआ सेनानी गुह। जैसे अनेक मेघों में भिन्न-भिन्न रूपों से एक ही बिजली दमकती दिखाती देती है, वैसे ही उन उपस्थित नरेशों में मानो एक ही राजश्री अनेक रूपों में छिटक रही थी। बहुमूल्य आसनों पर विराजमान उन राजाओं की श्रेणी में सम्राट् रघु का कुमार कल्पवृक्षों में पारिजात के समान देदीप्यमान हो रहा था । जब उपवन में कोई मदमस्त हाथी आ जाए, तो गन्ध से खिंचे हुए भौरे फूलों को छोड़कर उसी की ओर खिंच जाते हैं। नगरवासियों की आंखें भी अज के पहुंचने पर क्षत्रियों को छोड़कर उसी की ओर आकृष्ट हो गई।
इस प्रकार सूर्य और चन्द्रवंशी राजाओं के एकत्र हो जाने पर वंशपरम्परा से अभिज्ञ बन्दीजनों ने उनका अभिनन्दन किया। धूपबत्तियों के जलने से उठा हुआ धुआं पताकाओं की चोटियों को छूने लगा, और नगर के समीप उपवनों में रहनेवाले मोरों को नचा देनेवाला प्राभातिक शंख आकाश को गुंजाने लगा। मंगलाचरण समाप्त होने पर, मनुष्यों द्वारा उठाई जाने वाली चौकोर पालकी में परिजनों द्वारा घिरी हुई, पति के वरण की इच्छा रखनेवाली स्वयंवर-वेषधारिणी राजकुमारी इन्दुमति ने मंडप के राजमार्ग में प्रवेश किया। सैकड़ों आंखों की एक लक्ष्य, विधाता की उस अद्भुत रचना के सम्मुख आने पर सब नरेश अन्तःकरणों से उसके समीप जा पहुंचे, सिंहासनों पर तो केवल उनके शरीर ही रह गए ।
तब राजवंशों के इतिहास से परिचित और पुरुष के समान प्रगल्भ प्रतिहारी सुनन्दा इन्दुमति को मगधदेश के राजा के समीप ले जाकर बोली-यह मगधदेश का राजा परन्तप है। जैसी नाम वेसे गुणोवाला है। शत्रुओं का काल है, शरणार्थियों को शरण देनेवाला है और स्वभाव से गम्भीर है। प्रजा का रंजन करने के कारण इसने यश प्राप्त किया है। शासक तो अनेक हैं, परन्तु भूमि को राजवन्ती कहलाने का सौभाग्य इसी से प्राप्त है। आकाश में अनगनित ग्रह-नक्षत्र हैं, परन्तु रात्रि चन्द्र के कारण ही उजली समझी जाती है। इस राजा के द्वारा यज्ञों में निरन्तर निमन्त्रित होने के कारण इन्द्र को बहुत समय तक स्वर्गलोक से अनुपस्थित रहना पड़ता था। फलतः पति-वियोग में महारानी शची के सुन्दर केश कपोलों तक लटक गए और मन्दार पुष्पों से शून्य हो गए हैं। यदि तुम चाहती हो कि यह श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा पाणिग्रहण करे, तो पुष्पपुर में प्रवेश के लिए उद्यत हो जाओ, जहां प्रवेश के समय नगर की सुन्दरियां महलों के झरोखों में बैठकर तेरे दर्शन से अपने नेत्रों को आनन्दित करेंगी।
सुनन्दा के वचन सुनकर इन्दुमती ने मुंह से तो कोई उत्तर नहीं दिया, केवल परंतप की ओर देखकर हल्का-सा प्रणाम कर दिया, जिसका अभिप्राय था कि नहीं।
जैसे वायु के वेग से उठी हुई जल की लहर मानस सरोवर की राजहंसी को एक कमल से दूसरे कमल के पास पहुंचा देती है, उसी प्रकार वह दौवारिक सुनन्दा राजकुमारी को परंतप के पास से हटाकर दूसरे राजा के समीप ले गई और बोली --
यह अंगदेश का राजा है। अप्सराएं इसके यौवन पर लट्टू हैं। प्रसिद्ध महावतों द्वारा सधाए हुए हाथियों की विभूति के कारण यह ऐरावत के स्वामी इन्द्र के सदृश ऐश्वर्य का उपभोग कर रहा है। इसके पराक्रम ने पराजित शत्रुओं की स्त्रियों के गले में मोतियों के समान स्थूल आंसुओं की मालाएं डालकर बिना सूत्र के ही हार पहना दिए हैं। श्री और सरस्वती स्वभाव से एक-दूसरे के संग नहीं रहतीं, इसने अपने गुणों से दोनों को वश में कर लिया है। शरीर के सौंदर्य और सत्य तथा प्रिय वाणी के कारण हे इन्दुमती, तुम ही इसके योग्य हो।
सुनन्दा के वाक्य की समाप्ति पर इन्दुमति ने अंगराज पर से आंख हटाकर कहा-आगे चल! इससे यह न समझना चाहिए कि अंगराज सुन्दर नहीं था. और न ही यह बात थी कि इन्दुमती में पहचानने की शक्ति न हो। तो भी इन्दुमती उसे छोड़ गई। संसार में सबकी रुचि भिन्न-भिन्न है ।
उससे आगे सुनन्दा इन्दुमती को नवोदित चन्द्र के समान सुन्दर और आकर्षक अवन्तिनाथ के सामने ले गई, और कहने लगी --
यह विशाल वक्षस्थल और संकुचित कटिभाग से सुशोभित महाबाहु अवन्ति का शासक है। इसका तेजस्वी शरीर, विश्वकर्मा द्वारा चक्र पर चढ़ाए हुए सूर्त जैसा प्रतीत होता है। इसकी विजय यात्रा में सेना के घोड़ों की टाप से उठी धूलि शत्रुओं के मुकुटों की मणियों पर बैठकर, इसके पहुंचने से पूर्व ही उन्हें आभाहीन कर देती है। यह महाकाल-मन्दिर के निवासी भगवान् चन्द्रमौलि महादेव के समीप ही रहता है, इस कारण अंधेरी रातों में भी यह चांदनी से चमकती हुई रातों का अनुभव करता है। यदि इस नौजवान राजा के साथ, शिप्रा नदी के जलों का स्पर्श करनेवाले वायु से प्रकम्पित उद्यानों में विहार करने का विचार हो तो हे सुन्दरी राजकुमारी, मुझे बता दो।
अवन्तिनाथ अपने तेज से मित्ररूपी पद्मों को विकसित करनेवाला, और शत्रुरूपी कीचड़ को सुखा देनेवाला होने के कारण सूर्य के समान तेजस्वी था। परन्तु जैसे सुकोमल कुमुदिनी उसे पसन्द नहीं करती, वैसे ही इन्दुमती का हृदय भी उसकी ओर नहीं झुका। तब सुनन्दा इन्दुमती को आगे लाकर अनूपराज का परिचय देने लगी --
ब्रह्मज्ञानी राजा कार्तवीर्य का नाम तुमने सुना होगा। जब वह संग्रामभूमि में उतरा था, तब शत्रु उसे सहस्त्रबाहु-सा अनुभव करते थे। उसने अठारहों द्वीपों में अपने यज्ञों के यूथ गाड़ दिए थे। प्रजारंजन के कारण 'राजा' यह विशेषण उसमें असाधारण रूप से अन्वर्थक जंचता था। प्रजा पर उसका ऐसा आतंक था कि मन में अपराध का विचार आते ही धनुर्धारी राजा की मूर्ति मन के सामने आ जाती और मानसिक अपराध भी रुक जाता था। जिस रावण ने इन्द्र को भी जीत लिया था, कार्तवीर्य के कारागृह में उसी रावण की भुजाएं धनुष की प्रत्यंचा से बंधी हुई थीं, और मुखों से निरन्तर जोर-जोर से सांस निकल रहे थे और उसे तब तक बन्दी रहना पड़ा था जब तक राजा का अनुग्रह न हुआ। उस कार्तवीर्य के वंश में वेदवेत्ताओं की सेवा करनेवाले इस 'प्रतीप' नामक राजा ने जन्म लिया है, जिसने अपनी दृढ़ता के कारण श्री का 'चंचलता' अपयश धो दिया है। इस तपस्वी ने तपस्या द्वारा आग्निदवता की प्रसन्न करके सहायता का वर प्राप्त किया है। उसके प्रभाव में क्षात्रियों के सहारकर्ता परशुराम के परश की धार को यह कमलपत्र की धार से भी अधिक कोमल समझता है। यदि महिष्मती नगरी की चहारदीवारी के चारों ओर कमरबन्द की तरह लिपटी हुई और केशवेणी के समान लहरें खाते हुए जलप्रवाह से सुन्दर रेखा नदी को देखने की इच्छा है, तो तुम इस राजा की गृहलक्ष्मी बन जाओ।
वह देखने में सुन्दर राजा भी इन्दुमती को पसन्द नहीं आया। बादलों के हट जाने से निर्विघ्न चमकने वाला सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा भी कमलिनी को खिलाने में समर्थ नहीं होता।
तब वह अन्तःपुर की रक्षिका सुनन्दा, राजकुमारी को आचार की शुद्धता के कारण माता और पिता दोनों वंशों की ख्याति को चमकाने वाले, देश-देशान्तर में प्रसिद्ध शूरसेन देश के राजा सुषेण के समीप ले जाकर बोली-मुनियों के आश्रम में जैसे सिंह और गौ, स्वभाव से विरोधी जीव आपस का विरोध छोड़ देते हैं, वैसे ही नीप वंश के अंकुर इस यज्ञपरायण राजा में इकट्ठे होकर अनेक परस्पर-विरोधी गुणों ने विरोध-भाव छोड़ दिया है। इस राजा की जो कान्ति अपने घर में चांद की चांदनी की तरह शीतल होकर फैल रही है, वही परास्त होने के कारण सुनसान हुए शत्रुओं के घरों में असह्य तेज बनकर चमकती है। यमुना का जल अन्य सब स्थानों पर काला है, परन्तु इस राजा की नगरी मथुरा के पास जब राजपरिवार की स्त्रियां उसमें स्नान करती हैं, तो उनके वक्ष पर लगे चन्दन के कारण वह धौला हो जाता है, जिससे प्रतीत होने लगता है कि मानो वहीं यमुना और गंगा का संगम हो गया है। गरुड़ से डरे हुए यमुना-तटवासी कालिया सर्प के द्वारा दी हुई मणि को छाती पर धारण करके यह राजा सुषेण शोभा में कौस्तुभधारी कृष्ण को भी मात दे रहा है । हे राजकुमारी, यदि तुम कुबेर की वाटिका से भी अधिक सुन्दर वृन्दावन में कोमल पल्लवों से ढकी हुई पुष्पशय्या पर विश्राम करने का विचार रखती हो तो अपनी यौवन-श्री इन युवा को समर्पित करो। तुम वहां वर्षाऋतु में, गोवर्धन पर्वत की सुन्दर कन्दराओं में, जलकणों से भीगे हुए पहाड़ी फलों से सुगन्धित शिलातलों पर, मोरों का मनोहारी नाच देखोगी।
जैसे समुद्र की ओर बहने वाली नदी मार्ग में आए हुए ऊंचे पर्वतों को लांघ जाती है, वैसे ही इन्दुमती उस वीर राजा को छोड़कर आगे चली गई । आगे कलिंग के राजा हेमाङ्गद का आसन था। उसकी भुजाओं पर केयूर शोभायमान हो रहा था। सुनन्दा उसे लक्ष्य करके इन्दुमती से बोली -
महेन्द्र पर्वत के समान विशाल और दृढ़ यह राजा महेन्द्र पर्वत और समुद्र का स्वामी है। जब इसकी सेनाएं विजय-यात्रा के लिए चलती हैं, तब मद की धारा बहाते हुए हाथी उनके आगे-आगे चलते हैं, मानो नदियों को साथ लिए महेन्द्र पर्वत स्वयं मार्ग-प्रदर्शन कर रहा हो। इस धनुर्धारी की भुजाओं पर निरन्तर 1. धनुश्चालन के कारण प्रत्यंचा के निशान पड़ गए हैं, मानो इसके द्वारा मारे गए शत्रुओं की स्त्रियों के कज्जल-सहित आंसुओं की धाराओं के चिह्न हों। इसके प्रासाद के नीचे फैला हुआ समुद्र, प्रातःकाल प्रासाद के रोशनदान में से दिखाई देती हुई लहरों की गम्भीर ध्वनि से इसे जगा देता है, जिससे अन्य किसी प्राभातिक वाद्य की आवश्यकता नहीं रहती। इसके साथ तुम ताड़ के पत्तों के मर्मर शब्द से युक्त समुद्रतटों पर विहार करो, जहां अन्य द्वीपों से उड़ाकर लाए हुए लवंग पुष्परजों से सुगन्धित वायु तुम्हारे पसीने की बूंदों को सुखा देगी।
जैसे दैव के प्रतिकूल होने पर कुशल से कुशल नीतिज्ञ राजलक्ष्मी को अपने अनुकूल नहीं बना सकता, वैसे ही सुनन्दा के बहुत लुभानेवाले वाक्य भी इन्दुमती को महेन्द्र की ओर आकृष्ट न कर सके। सुनन्दा इन्दुमती को आगे ले गई, जहां सुन्दरता में देवताओं के समान उरग नामक नगर का राजा विराजमान था। वह बोली-राजकुमारी, इधर देखो, यह पाण्डुदेश का राजा पाण्ड्य है। इसकी चन्दन से सुशोभित छाती पर लम्बे लटकते हुए हार ऐसे दमक रहे हैं मानो प्रातःकाल की सूर्य-किरणों से लाल-लाल दीखनेवाली हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों से गिरता हुआ जलनिर्झर हो । विन्ध्यपर्वत को सूर्य के मार्ग में अड़ने से रोकने वाले तथा समुद्र को सुखाकर भर देने वाले ऋषि अगस्त्य, अश्वमेध की समाप्ति पर स्नान से निवृत्त हुए यशस्वी क्षत्रिय से प्रेमपूर्वक कुशल समाचार पूछने आते हैं। अभिमान से भरा हुआ लंकापति रावण जब इन्द्रलोक को जीतने के लिए उत्तर की ओर जाने लगा, तब इस आशंका से कि कहीं यह पीछे जनस्थान-प्रदेश पर अधिकार न जमा ले, वह पाण्ड्य से सन्धि करने के लिए बाधित हुआ था। हे राजकुमारी! इस महाकुलीन राजा का पाणिग्रहण करके तुम रत्नों की लड़ी से सुभूषित समुद्ररूपी कमरबन्दवाली दक्षिण दिशा की सपत्नी बन जाओगी। यदि तुम पाण्ड्य का वरण करो तो तुम्हें मलय पर्वत के ताम्बूल की बेलों द्वारा आलिंगित, सुपारी, इलायची आदि लताओं द्वारा परिवेष्टित, चन्दन और तमाल के पत्तों से बने हुए आस्तरणों के अलंकृत प्रदेशों में विहार करने का अवसर मिलेगा। नीलकमल के समान नीली छविवाला यह राजकुमार है और रोचना के सदृश गोरे रंग की तुम हो। जैसे बिजली और काले बादल की शोभा एक-दूसरे से बढ़ती है, उसी प्रकार तुम्हारी भी बढ़ेगी।
सुनन्दा ने पाण्ड्य के सम्बन्ध में जितने उपदेश दिए, इन्दुमती के हृदय पर उनमें से एक का भी प्रभाव न पड़ा। सूर्य के अदर्शन से बन्द हुए नलिनी के फूल को खोलने में चन्द्र की किरणें कभी समर्थ नहीं होतीं। वह पतिंवरा राजकुमारी जलती हुई दीपशिखा के समान जिस-जिस राजा के पास से गुजरती जाती थी, राजमार्ग के दोनों और बने हुए विशाल भवनों की तरह उसी पर अंधेरा छाता जा रहा था।
जब इन्दुमती अज के समीप पहुंची तब अज का दिल यह सोचकर धड़कने लगा कि यह मेरा वरण करेगी या नहीं, किन्तु उस समय उसकी दक्षिण भुजा के केयूरबन्ध के स्थान में जो फड़कन पैदा हुई, उसने उसके सन्देह को दूर कर दिया। उस सर्वाग-सुन्दर क्षत्रिय राजकुमार के सामने जाकर राजकुमारी रूक गई फूले हुए सहकार के पौधे को पाकर भौरों की पंक्ति अन्य पौधों के समीप नहीं जाती।
जब सुनन्दा ने देखा कि राजकुमारी का मन अज की ओर आकृष्ट हो गया है, तब वह राजवंशों के यृत्तान्त में प्रवीण प्रतिहारी विस्तार सहित यों कहने लगी --
इक्ष्वाकु के वंश में ककुत्स्थ नाम का एक वीर उत्पन्न हुआ, जो राजाओं में ककुद के समान उन्नत और श्रेष्ठ था और वक्रवर्ती के लक्षणों से युक्त था। उत्तरकोसल देश के शासक उसी वीर के नाम से ककुत्स्थ कहलाते हैं। उस पराक्रमी ककुत्स्थ के वंश में यशस्वी और कुल को उज्ज्वल करनेवाले उस राजा दिलीप ने जन्म लिया, जिसने निन्यानवे राजसूय यज्ञ करके सौवा यज्ञ केवल इसलिए अधूरा छोड़ दिया कि देवताओं के राजा इन्द्र के मन को पीड़ा न पहुंचे उसके राज्यकाल में जब नाचनेवाली स्त्रियां थककर क्रीड़ा-स्थान के मध्यमार्ग में सो जाती थीं, तब वायु का साहस नहीं होता था कि उनके कपड़ों को हिलाए, हाथ तो झल ही कौन सकता था! उस राजा दिलीप का पुत्र रघु अब शासन कर रहा है। सम्राट् रघु ने दिग्विजय करके विश्वजित् नामक यज्ञ को पूर्ण किया और यज्ञ की समाप्ति पर चारों दिशाओं से एकत्र हुई विभूति का दान कर दिया, जिससे उसके पास केवल मिट्टी के बर्तन शेष रह गए। उसका यश आज पृथ्वी की सीमाओं को पार कर गया है। यह पहाड़ों से ऊँचा चला गया है, समुद्रों से पार हो गया और पाताल को छेदकर उसके भी नीचे फेल गया है, जैसे स्वर्ग के स्वामी इन्द्र का जयन्त नाम का पुत्र है, उसी प्रकार यह कुमार राजा रघु का तेजस्वी उत्तराधिकारी है, जो पिता के लिए शासनभार उठाने में समानरूप से सहायक हो रहा है। कुल, कान्ति, चढ़ती आयु और अनेक विद्या, शील आदि गुणों में यह तुम्हारे समान है। हे राजकुमारी, तुम इसके गले में वरमाला पहना दो। हीरा स्वर्ण से मिल जाए।
सुनन्दी का वचन समाप्त होने पर नैसर्गिक लज्जा को दबाकर इन्दुमती ने प्रसन्न और निर्मल दृष्टि से कुमार अज को इस प्रकार स्वीकार कर लिया, मानो वरमाला पहना दी हो। राजकुमारी वहां मुग्ध-सी होकर खड़ी रह गई। कुलीनता के कारण मुंह से कुछ न कह सकी। उसके मन की अभिलाषा का अनुमान केवल शरीरव्यापी रोमांच से हो रहा था। यह देखकर प्रतिहारी ने सखीभाव से परिहास करते हुए कहा-आयें, चलो आगे चलें। इसपर रोषभरी दृष्टि से उसने सुनन्दा की ओर देखा और निर्देश किया कि राजकुमार के कण्ठ में वरमाला पहना दे। प्रतिहारी सुनन्दा ने शरीरधारी प्रेम के सदृश मांगलिक सिन्दूर से रक्तवर्ण हुई माला को अज के गले में पहना दिया। विशाल वक्षःस्थल तक लटकनेवाले उस मंगलमय पुष्पों के हार को पहनकर राजकुमार ऐसा अनुभव करने लगा मानो विदर्भराज की कन्या की कोमल भुजाएं उसके गले का स्पर्श कर रही हों।
उस दृश्य से अत्यन्त प्रसन्न होकर विदर्भ के कहने लगे कि मेघों से मुक्त उपचल चन्द्रमा को चांदनी प्राप्त हो गई और शीतल समुद्र में भगवती गंगा अवतीर्ण हो गई। ये वाक्य स्वयंवर में उपस्थित अन्य राजाओं को बहुत कटु प्रतीत हुए। उस समय वहां एक ओर स्वयंवर के सुन्दर परिणाम से कन्या-पक्ष के लोग बहुत प्रमुदित हो रहे थे, तो दूसरी ओर निराश राजाओं के मन में जलन पैदा हो रही थी। स्वयंवर-माण्डप की दशा उस तालाब-सी हो रही थी, जिसमें उषाकाल में एक ओर कमलिनी खिल रही हो, दूसरी ओर कुमुदिनी मुरझा रही हो।
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